पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने अखण्ड ज्योति में एक लेख लिखा था , उसका अंश है ------ ' संपन्नता से सुविधा तो बढ़ सकती है , पर उससे व्यक्ति के अंतरंग को ऊँचा उठाने में जरा भी सहायता नहीं मिलती l चेतना का स्तर ऊँचा रहने की स्थिति में ही शक्ति और सम्पदा का सदुपयोग बन पड़ेगा l इसके बिना बंदर के हाथ तलवार पड़ने की संभावना ही अधिक रहेगी l
आदर्शवादिता बढ़े बिना बढ़ा हुआ वैभव विपत्तियाँ ही बढ़ाता है l बुद्धि - कौशल छल - छद्म करने के काम आता है l वैभव से दुर्व्यसन बढ़ते चले जाते हैं और अधिकारों का उपयोग स्वार्थपूर्ति तथा दुर्बलों को दबाने , उनका शोषण करने के काम आता है l कला की शक्ति पशु - प्रवृतियों को भड़काने में लग जाती है l
आचार्य श्री ने आगे लिखा है ---- ' व्यक्ति के अंतरंग में रहने वाली निकृष्टता अभावग्रस्त स्थिति में तो फिर भी दबी रहती है , लेकिन शक्ति और साधन मिलने पर वह और अधिक खुला खेल खेलने लगती है l तब कुकर्मी का वैभव उसके स्वयं के लिए , संबंधित व्यक्तियों और समाज के लिए अभिशाप ही सिद्ध होता है l
जीवन के दोनों पक्षों ---- भौतिकता के साथ आदर्शवादिता व जीवन मूल्यों का समन्वय जरुरी है l
आदर्शवादिता बढ़े बिना बढ़ा हुआ वैभव विपत्तियाँ ही बढ़ाता है l बुद्धि - कौशल छल - छद्म करने के काम आता है l वैभव से दुर्व्यसन बढ़ते चले जाते हैं और अधिकारों का उपयोग स्वार्थपूर्ति तथा दुर्बलों को दबाने , उनका शोषण करने के काम आता है l कला की शक्ति पशु - प्रवृतियों को भड़काने में लग जाती है l
आचार्य श्री ने आगे लिखा है ---- ' व्यक्ति के अंतरंग में रहने वाली निकृष्टता अभावग्रस्त स्थिति में तो फिर भी दबी रहती है , लेकिन शक्ति और साधन मिलने पर वह और अधिक खुला खेल खेलने लगती है l तब कुकर्मी का वैभव उसके स्वयं के लिए , संबंधित व्यक्तियों और समाज के लिए अभिशाप ही सिद्ध होता है l
जीवन के दोनों पक्षों ---- भौतिकता के साथ आदर्शवादिता व जीवन मूल्यों का समन्वय जरुरी है l