' असंभव को संभव कर दिखाने और अंग्रेज सरकार की नाक तले रहकर उसी की नाक में दम करने वाले युवा पत्रकार इन्द्र विद्दावाचस्पति का साहस बहुत कुछ उनके पिताजी की देन थी l स्वामी श्रद्धानन्द जैसे महात्मा का पुत्र होने का उन्हें गौरव प्राप्त हुआ था l '
उस समय दिल्ली में अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा का कोई दैनिक पत्र प्रकाशित नहीं होता था l उन्होंने दिल्ली से हिन्दी दैनिक ' विजय ' निकालने का दुस्साहस किया l पहले दिन इसकी केवल सत्तर प्रतियाँ बिकीं l तीन महीनो में इसकी बिक्री 500 तक पहुँच गई l
उन्होंने अपनी कलम की ताकत का भरपूर प्रयोग किया l ' विजय ' की धूम मच गई , पहला राष्ट्रीय पत्र था , खूब बिकने लगा l उस समय जो लोग हिन्दी नहीं पढ़ सकते थे वे दूसरों से पढ़वा कर सुनते थे l इस पर सरकार की कोप द्रष्टि पड़ना स्वाभाविक था l जमानत मांगी गई , सेंसरशिप लगाई गई । पत्र बंद करना पड़ा । उसके बंद होने पर उन्होंने ' अर्जुन ' निकाला l
आचार्य , पत्रकार व साहित्यकार तीनों रूपों में उन्होंने राष्ट्र और समाज की सच्ची सेवा की । अपने तीस वर्ष के पत्रकार जीवन में उन्हें अनवरत संघर्ष करना पड़ा । l सरकार की कोप द्रष्टि के कारण उनके राष्ट्रवादी पत्रों को निरंतर घाटा उठाना पड़ा l
इन्द्रजी ने पत्रकारिता को अर्थोपार्जन की द्रष्टि से नहीं , सार्वजनिक सेवा के उपयोगी माध्यम के रूप में अपनाया था l उनके पत्रों ने राष्ट्रीय जागरण का जो कार्य किया वह अपने आप में अनूठा है l
इन्द्रजी का कहना था ---- ' स्वतंत्र पत्रकारिता बड़ी कठिन हो गई है l पहले पत्र चलाना एक समाजोपयोगी कार्य था l आज व्यापर या राजनैतिक पार्टियों का प्रचार ही पत्रों का उद्देश्य हो गया है उन्होंने कहा था ----- " इस समय आवश्यकता इस बात की है किसरकारी कर्मचारियों , मंत्रीमंडल और पत्रकारों तथा जनता सबके चरित्र का स्तर ऊँचा हो l यदि ऐसा न होगा तो स्वराज्य ताश के पत्तों के मकान की तरह ढह जायेगा l "
उनका मत था कि शिक्षण , द्रष्टान्त और प्रचार से ही हम इस स्थिति को सुधार सकते हैं ।
उस समय दिल्ली में अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा का कोई दैनिक पत्र प्रकाशित नहीं होता था l उन्होंने दिल्ली से हिन्दी दैनिक ' विजय ' निकालने का दुस्साहस किया l पहले दिन इसकी केवल सत्तर प्रतियाँ बिकीं l तीन महीनो में इसकी बिक्री 500 तक पहुँच गई l
उन्होंने अपनी कलम की ताकत का भरपूर प्रयोग किया l ' विजय ' की धूम मच गई , पहला राष्ट्रीय पत्र था , खूब बिकने लगा l उस समय जो लोग हिन्दी नहीं पढ़ सकते थे वे दूसरों से पढ़वा कर सुनते थे l इस पर सरकार की कोप द्रष्टि पड़ना स्वाभाविक था l जमानत मांगी गई , सेंसरशिप लगाई गई । पत्र बंद करना पड़ा । उसके बंद होने पर उन्होंने ' अर्जुन ' निकाला l
आचार्य , पत्रकार व साहित्यकार तीनों रूपों में उन्होंने राष्ट्र और समाज की सच्ची सेवा की । अपने तीस वर्ष के पत्रकार जीवन में उन्हें अनवरत संघर्ष करना पड़ा । l सरकार की कोप द्रष्टि के कारण उनके राष्ट्रवादी पत्रों को निरंतर घाटा उठाना पड़ा l
इन्द्रजी ने पत्रकारिता को अर्थोपार्जन की द्रष्टि से नहीं , सार्वजनिक सेवा के उपयोगी माध्यम के रूप में अपनाया था l उनके पत्रों ने राष्ट्रीय जागरण का जो कार्य किया वह अपने आप में अनूठा है l
इन्द्रजी का कहना था ---- ' स्वतंत्र पत्रकारिता बड़ी कठिन हो गई है l पहले पत्र चलाना एक समाजोपयोगी कार्य था l आज व्यापर या राजनैतिक पार्टियों का प्रचार ही पत्रों का उद्देश्य हो गया है उन्होंने कहा था ----- " इस समय आवश्यकता इस बात की है किसरकारी कर्मचारियों , मंत्रीमंडल और पत्रकारों तथा जनता सबके चरित्र का स्तर ऊँचा हो l यदि ऐसा न होगा तो स्वराज्य ताश के पत्तों के मकान की तरह ढह जायेगा l "
उनका मत था कि शिक्षण , द्रष्टान्त और प्रचार से ही हम इस स्थिति को सुधार सकते हैं ।