परस्पर सम्मान का भाव हमारे रिश्तों को और उन रिश्तों के भविष्य को कितना प्रभावित करता है ------- इस तथ्य को पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने रामायण और महाभारत के उदाहरण से स्पष्ट किया है l -------- रामायण ------- कैकेयी मंथरा के बहकावे में आ गई l भरत को राज्य और राम को वनवास मांग बैठी l राम वनवास पर दशरथ जी ने शरीर त्याग दिया l भरत जी को वैराग्य हो गया l माता कौशल्या पर तो दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा l परन्तु ऐसी स्थिति में भी किसी ने किसी के सम्मान पर चोट नहीं की l कौशल्या राम को छोड़ना नहीं चाहती थीं , परन्तु एनी माताओं के सम्मान का उन्हें पूरा ध्यान था , अत: उन्होंने राम को वन जाने की अनुमति दे दी l जब राजा जनक ने सुना कि जानकी भी साथ गईं हैं है तब उन्होंने दूतों द्वारा सही स्थिति का पता लगाया और भरत का समर्थन करने चित्रकूट पहुँच गए l भरत के कारण राम -सीता को वनवास हुआ , इस नाते भरत को अपमानित करने का उन्होंने भूलकर भी प्रयास नहीं किया l ऐसे एक -दूसरे के सम्मान के भाव ने विकट परिस्थितियों में भी अयोध्या का संतुलन बनाए रखा l जो भूल थी वह भूल रह गई उससे परस्पर स्नेह में कोई फरक नहीं पड़ा l राम की अनुपस्थिति में और राम के के आने के बाद भी पारिवारिक सद्भाव स्वर्गीय सुख देता रहा l दूसरी ओर महाभारत एक - दूसरे को सम्मान न दे पाने की ही भीषण प्रतिक्रिया के रूप में उभरा l दुर्योधन ने राजमद में पांडवों को सम्मान नहीं दिया l तो प्रतिक्रिया में भीम भी अपने बल का उपयोग कर के उन्हें तिरस्कृत करने लगे l द्रोपदी सहज परिहास में भूल गई कि दुर्योधन को ' अंधे का बेटा अँधा ' संबोधन से अपमान का अनुभव हो सकता है l दुर्योधन भी द्वेष वश नारी के शील का महत्त्व ही भूल गया तथा द्रोपदी को भरी सभा में अपमानित करने पर उतारू हो गया l यही सब कारण जुड़ते गए और छोटी -छोटी शिष्टाचार की त्रुटियों की चिनगारियां भीषण ज्वाला बन गईं l यदि परस्पर सम्मान का ध्यान रखा गया होता , अशिष्टता पर अंकुश रखा जा सका होता ,तो स्नेह बनाए रखने में कोई कठिनाई नहीं होती l भीष्म पितामह और भगवान कृष्ण जैसे युग -पुरुषों के प्रभाव का लाभ मिल जाता l