" जन-गण-मन अधिनायक, जय हे भारत भाग्य विधाता " राष्ट्रगीत के निर्माता---- रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जीवन भर पद-दलित मानवता को ऊँचा उठाने के लिए, मानव को मानव बनकर रहने की प्रेरणा देने के लिए संघर्ष किया । वे जानते थे कि क्रांति तोपों और बंदूकों से नहीं, विचार परिवर्तन से होती है । भावनाएं न बदलें तो परिस्थितियों में स्थायी हेर-फेर नहीं हो सकता । यदि विचार बदल जायें तो बिना दमन ओर दबाव के भी सब कुछ बदल सकता है ।
उनकी कविताएँ मानवता का प्रतिनिधित्व करती हैं । उनकी विश्वविख्यात रचना ' गीतांजलि ' पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला । प्राय: लोग उनके इस सम्मान और ख्याति का कारण उनकी काव्य-प्रतिभा और साहित्यिक कृतियों को ही मानते हैं । उनका साहि त्यिक रूप उनके जीवन में सबसे आगे है, उसी के पीछे उनके लोक-सेवा के कार्य छुपे हैं ।
जिस समय भारत के अनेक क्षेत्रों में प्लेग का प्रकोप हुआ, उन्होंने प्लेग-पीड़ितों की सहायता के लिए प्रेरणाप्रद अपीलें निकाली, डॉक्टरों, नर्सों से मिलकर उन्हें रोगियों की सेवा के लिए प्रेरित किया । उन्होंने न जाने कितना धन और सामग्री अपने पास से प्लेग-पीड़ितों के लिए भेजी
बिहार के भूकंप के समय रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जिस हार्दिक करुणा और संवेदना का परिचय दिया उससे स्पष्ट हो गया कि वे ना केवल विश्व-कवि थे अपितु महामानव भी थे । उन्होंने भूकंप से बरबाद हुए न जाने कितने बालक, वृद्ध और स्त्री-पुरुषों के आँसू सुखाए, न जाने कितने पीड़ित परिवारों को आश्रय दिलाने की व्यवस्था की । दुःखी मानवता को सांत्वना प्रदान करने वाली उनकी ये सेवाएं इतिहास में सदा सर्वदा के लिए लिखी रहेंगी ।
प्राचीन गुरुकुल प्रणाली पर आधारित शिक्षा के लिए उन्होंने ' शान्ति निकेतन की स्थापना की और अपनी समस्त संपति और नोबेल पुरस्कार की राशि उसके संचालन में लगा दी | बाद में जब धन की कमी पड़ी तो वे एक ' अभिनव मण्डली ' बनाकर भ्रमण करने के लिए निकले ओर अनेक बड़े नगरों में प्रदर्शन कर संस्था के लिए धन एकत्रित किया । उन्होंने सिद्ध कर दिखाया कि वे कोरे भावुक कवि ही नहीं एक सच्चे कर्मयोगी भी हैं ।
जब जूट के व्यवसाय मे उन्हें कई लाख रूपये का घाटा हुआ तब वे शान्ति निकेतन के निर्माण की योजना बना रहे थे, उनको न लाभ का मोह था न घाटे की अप्रसन्नता । उनमे अपनी संस्कृति के प्रति उत्सर्ग का अनोखा भाव था । उनकी प्रत्येक सदिच्छा को शक्ति उनकी पत्नी ने दी, वे एक गाँव की अनपढ़ कन्या थीं, यह विषमता होते हुए भी उनका अटूट और निश्छल दाम्पत्य-प्रेम आदर्श और वन्दनीय है ।
उनकी कविताएँ मानवता का प्रतिनिधित्व करती हैं । उनकी विश्वविख्यात रचना ' गीतांजलि ' पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला । प्राय: लोग उनके इस सम्मान और ख्याति का कारण उनकी काव्य-प्रतिभा और साहित्यिक कृतियों को ही मानते हैं । उनका साहि त्यिक रूप उनके जीवन में सबसे आगे है, उसी के पीछे उनके लोक-सेवा के कार्य छुपे हैं ।
जिस समय भारत के अनेक क्षेत्रों में प्लेग का प्रकोप हुआ, उन्होंने प्लेग-पीड़ितों की सहायता के लिए प्रेरणाप्रद अपीलें निकाली, डॉक्टरों, नर्सों से मिलकर उन्हें रोगियों की सेवा के लिए प्रेरित किया । उन्होंने न जाने कितना धन और सामग्री अपने पास से प्लेग-पीड़ितों के लिए भेजी
बिहार के भूकंप के समय रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जिस हार्दिक करुणा और संवेदना का परिचय दिया उससे स्पष्ट हो गया कि वे ना केवल विश्व-कवि थे अपितु महामानव भी थे । उन्होंने भूकंप से बरबाद हुए न जाने कितने बालक, वृद्ध और स्त्री-पुरुषों के आँसू सुखाए, न जाने कितने पीड़ित परिवारों को आश्रय दिलाने की व्यवस्था की । दुःखी मानवता को सांत्वना प्रदान करने वाली उनकी ये सेवाएं इतिहास में सदा सर्वदा के लिए लिखी रहेंगी ।
प्राचीन गुरुकुल प्रणाली पर आधारित शिक्षा के लिए उन्होंने ' शान्ति निकेतन की स्थापना की और अपनी समस्त संपति और नोबेल पुरस्कार की राशि उसके संचालन में लगा दी | बाद में जब धन की कमी पड़ी तो वे एक ' अभिनव मण्डली ' बनाकर भ्रमण करने के लिए निकले ओर अनेक बड़े नगरों में प्रदर्शन कर संस्था के लिए धन एकत्रित किया । उन्होंने सिद्ध कर दिखाया कि वे कोरे भावुक कवि ही नहीं एक सच्चे कर्मयोगी भी हैं ।
जब जूट के व्यवसाय मे उन्हें कई लाख रूपये का घाटा हुआ तब वे शान्ति निकेतन के निर्माण की योजना बना रहे थे, उनको न लाभ का मोह था न घाटे की अप्रसन्नता । उनमे अपनी संस्कृति के प्रति उत्सर्ग का अनोखा भाव था । उनकी प्रत्येक सदिच्छा को शक्ति उनकी पत्नी ने दी, वे एक गाँव की अनपढ़ कन्या थीं, यह विषमता होते हुए भी उनका अटूट और निश्छल दाम्पत्य-प्रेम आदर्श और वन्दनीय है ।