पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं ---- ' जिसने अपने को जितना मूल्यवान समझा संसार से उसका उतना ही मूल्य प्राप्त हुआ l ' टिटियन नामक एक प्रसिद्ध चित्रकार था l अनेक व्यक्ति उसके चित्रों को देखने और खरीदने आते थे l एक दिन एक धनिक कलाप्रेमी आया l उसने देर तक एक चित्र को देखकर पूछा ---- " मैं इस चित्र को अपने लिए चुनता हूँ l इसका मूल्य क्या है ? ' चित्रकार ने शांत स्वर में उत्तर दिया ---- " पचास गिन्नियां l " वह धनी व्यक्ति बोला ---- " एक छोटे से चित्र का इतना अधिक मूल्य ! आपको इस चित्र को बनाने में कठिनता l से एक सप्ताह लगा होगा l कागज , रंग आदि का खर्चा तो नहीं के बराबर है l फिर इसका दाम पचास गिन्नियां कैसे ? आप शायद भूल करते हैं l " टिटियन ने उत्तर दिया --- " महाशय , आप भूलते हैं l पूरे तीन साल निरंतर परिश्रम करने के बाद मैं इस योग्य बना हूँ कि ऐसे चित्र को चार दिन में ही बना सकता हूँ l इसके पीछे मेरा वर्षों का अनुभव , साधना और योग्यता छिपी है l " धनी व्यक्ति उसके उत्तर से संतुष्ट हुआ और उसने इतने बड़े मूल्य पर चित्र को खरीद लिया l यदि चित्रकार अपनी कला का मूल्य कम लगाता , तो निश्चित ही अपनी कला का मूल्य कम मिलता l अपने को मूल्यवान समझें
20 January 2021
WISDOM ------ अहंकार और क्रोध से किसी का भला नहीं होता
पुराण में एक प्रसंग है ---- प्रचेता एक ऋषि के पुत्र थे l किन्तु उनका स्वभाव बड़ा क्रोधी था l उन्होंने क्रोध को एक व्यसन बना लिया था और जब - तब उससे हानि उठाते रहते थे l ज्ञानी और साधक होते हुए भी वे अपनी इस दुर्बलता को दूर नहीं कर पा रहे थे l एक बार वे एक वीथिका से गुजर रहे थे l उसी समय दूसरी ओर से कल्याणपाद नाम का एक व्यक्ति आ गया l दोनों एक - दूसरे के सामने आ गए l पथ बहुत सँकरा था l एक के राह छोड़े बिना , दूसरा जा नहीं सकता था , लेकिन कोई भी रास्ता छोड़ने को तैयार नहीं हुआ और हठपूर्वक आमने - सामने खड़े रहे l थोड़ी देर खड़े रहने पर दोनों ने हटना , न हटना प्रतिष्ठा - अप्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया l अजीब स्थिति पैदा हो गई l ऋषि कहते हैं --- यहाँ पर समस्या का हल यही था कि जो व्यक्ति अपने को दूसरे से श्रेष्ठ और सभ्य समझता है वह हटकर रास्ता दे देता और यही उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण होता l निश्चित था कि प्रचेता , कल्याणपाद से श्रेष्ठ थे l कल्याणपाद उनकी तुलना में कम था l इसलिए प्रचेता को उसे रास्ता दे देना चाहिए , किन्तु क्रोधी स्वभाव के कारण उन्होंने वैसा नहीं किया , बल्कि उसी की तरह अड़ गए l कुछ देर दोनों खड़े रहे , परस्पर विवाद हुआ , फिर प्रचेता को क्रोध हो आया l उन्होंने उसे श्राप दे दिया कि राक्षस हो जाये l उनके तप के प्रभाव से कल्याणपाद राक्षस बन गया और प्रचेता को ही खा गया l क्रोध व अहंकार के कारण प्रचेता के तप का प्रभाव कम हो गया था इस कारण वे अपनी रक्षा न कर सके l