6 September 2022

WISDOM ----

 पं.श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं --- ' आसुरी  प्रवृति  वाले  व्यक्तियों  की  मूल  रूचि  अपने  अहंकार  की  पूर्ति  में  ही  होती  है  ,  इसलिए  उनको  लगता  है  कि  वे  ही  श्रेष्ठतम  हैं  l  उनसे  बढ़कर  और  उनसे  ऊपर  कोई  और  नहीं  हो  सकता  l  वे  यदि  शुभ  कर्म  भी  करते  हैं  तो  इसलिए  ताकि  उनके  स्वयं  के  अहंकार  की  पूर्ति  हो  सके  l  उनके  दान , उनके  यज्ञ   इसलिए  होते  हैं  ,  ताकि  उनको  वाहवाही  मिले  ,  लोग  उनका  नाम  लें  और  कहें  कि वे  श्रेष्ठ  हैं  l "  श्रीमद् भगवद्गीता  में  भगवान  कहते  हैं --- ऐसी  प्रवृति  वाले  मनुष्य  अपने  आप  को  ही  श्रेष्ठ  मानने  वाले  धन  और  मान  के  मद  से  युक्त  होते  हैं  तथा  दिखावे  के  लिए  यज्ञ   आदि  कर्मों  को  करते  हैं  l  उनका  उद्देश्य  इन  कर्मों  को  कर  के  धर्म  की  रक्षा  करना  नहीं  होता  ,  बल्कि  अपने  अहंकार  की  पुष्टि  करना  होता  है   l  " ------- इस  सन्दर्भ  में  एक  कथा  है ----- एक  राजा  ने  अपने  अहंकार  की  पूर्ति  के  लिए  एक  बार  बड़े -बड़े  यज्ञ  कराए  l  बहुत  सा  दान  दिया  l  लोगों  ने  उसकी  बहुत  प्रशंसा  की  ,  इससे  उसका  अहंकार  और  बढ़  गया   l  वह  सोचने  लगा  कि  उसके  समान  धार्मिक  और  परोपकारी  और  कोई  नहीं  है  l   एक  दिन   एक   संत   उसके  महल  में     पधारे  l  उसने  संत  को  अपना  सब  खजाना  ,  वैभव  दिखाया   और  सोचा  कि   संत   उसकी  प्रशंसा  करेंगे  ,  पर  संत  बोले --- " राजन ! क्षण भंगुर  में  सुख  कैसा  ?  जो  शाश्वत  नहीं  है  ,  उसमें  सुख  या  धर्म  ढूँढना   मूर्खता  है  l  इससे  राजा  के  अहंकार  को  बहुत  चोट  लगी  और  उसने  संत  को  सूली  पर  चढ़ाने  का  आदेश  दे  दिया  l  उसे  यह  देखकर  बड़ा  आश्चर्य  हुआ  कि  संत  सूली  चढ़ते  समय  भी  मस्ती  से   मुस्करा  रहे  थे  ,  मानों  कुछ  हुआ  ही  न  हो  l  कुछ  वर्षों  बाद  राजा  एक  युद्ध  में  पराजित  हुआ  l  विजेता  राजा  ने  उसको  उसी  के  महल  के  खम्भे  से  बांधकर   फाँसी  चढ़ाने  का  आदेश  दिया   तब  उस  राजा  को  उन  संत  की  बातें  याद  आईं  l  आसुरी  प्रवृति  वाले  ऐसे  अहंकारी  के  द्वारा  किए  गए  धर्मार्थ  कार्य  भी  पाखंड  के  समान  प्रतीत  होते  हैं  l  अहंकार  का  अंत  होता  ही  है  l