पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं ----- ' देवत्व का अर्थ है -- भावनाओं की समृद्धता और अंत :करण की उदारता l जिसे यह समझ में आ जाता है कि जितना मुझे मिला है , उतना मैं बांटना शुरू कर दूँ -- वह सच्चे अर्थों में देवत्व का अधिकारी बन जाता है l ' पुराण में एक कथा है ---- एक बार नारद जी ने ब्रह्माजी से पूछा ---- देवता और असुर दोनों ही आपकी संतान है , फिर देवताओं को अमृत मिला , असुरों को नहीं l आपकी सृष्टि में यह भेदभाव क्यों ? ' ब्रह्माजी ने उत्तर दिया ---- ' देवर्षि ! देवता होना या असुर होना , मन:स्थिति के आधार पर तय होता है , वंश के आधार पर नहीं l यदि वंश के आधार पर कोई देवता बनता तो बलि , प्रह्लाद या विरोचन देवता क्यों कहलाते l इनमें से सभी असुरों के वंश में जन्मे थे , जबकि रावण सप्त ऋषियों के वंश में जन्म लेने के बाद भी राक्षस ही कहलाया l यह निर्धारण अंत:करण की उदारता के आधार पर है l जिसके अंत:करण में उदारता है , वह देवता है l जिसके अंत:करण में संकीर्णता है , जो दूसरों से छीनने का भाव रखता हो वह असुर है l " ब्रह्माजी ने इस बात को प्रयोग द्वारा स्पष्ट करने के लिए सांयकाल के भोजन के लिए देवताओं और असुरों को आमंत्रित किया l पहले असुरों को बुलाया l भोजन परोसा गया , तब ब्रह्माजी ने कहा कि शर्त यह है कि इस भोजन को बिना कोहनी मोड़े ग्रहण करना है l असुर इस तरह भोजन ग्रहण नहीं कर पाए l फिर देवताओं को भोजन के लिए बुलाया गया l ब्रह्माजी ने उनके सामने भी यही शर्त रखी कि बिना कोहनी मोड़े भोजन करना है l सब देवता एक दूसरे के सामने बैठ गए और बिना कोहनी मोड़े सबने अपने सामने बैठे देवता को भोजन खिला दिया l इस तरह सभी का पेट भर गया और सब संतुष्ट हुए l यह देखकर देवर्षि नारद की जिज्ञासा का समाधान हो गया और वे समझ गए कि देवता वो होते हैं जो बांटना जानते हैं , जिनमे उदारता होती है l
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