पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- 'प्रशंसा के अनेक भेद हैं l प्रशंसा को अपना स्वार्थ साधने के लिए , अपना काम निकालने के लिए , देश-काल-परिस्थिति का ज्ञान किए बगैर करने को चाटुकारिता कहा जाता है l जो इनसान चाटुकारिता प्रिय होता है , उसमे विवेक का घोर अभाव होता है और वह बिना विचारे अपनी प्रशंसा करने वालों पर मेहरबान हो जाता है l ' राजतन्त्र में राजा को खुश करने के लिए विशेष रूप से चाटुकारों की व्यवस्था की जाती थी l उनका काम ही था कि वे राजाओं के विभिन्न कार्यों , गुणों आदि की प्रशंसा करें l वे लोग बड़े विशेषज्ञ होते थे और वही बोलते थे , जो राजा को पसंद हो फिर चाहे वह सत्य हो या झूठ हो l वर्तमान समय में चाटुकारिता का दायरा बहुत व्यापक हो गया है l अब केवल मुँह से बोलकर ही चापलूसी नहीं होती l कहीं अपार धन दे कर , चुनाव जिताने में योगदान देकर , अपने नेता की वाहवाही करने वालों की संख्या बढ़ाकर आदि अनेक तरीकों से चापलूसी की जाती है l अपने अधिकारी को खुश करने के लिए लोग उनकी पत्नी और बच्चों तक की खुशामद करते हैं l कहीं तो हाल ऐसा भी है कि सुबह जागने से रात को सुलाने तक चापलूस पीछा नहीं छोड़ते l इस कारण चाहे छोटा अधिकारी हो या बड़ा नेता , उनकी स्वयं की बुद्धि काम करना बंद कर देती है , पूरी व्यवस्था चाटुकारों के इशारे पर चलती है l वर्तमान युग में जब सम्पूर्ण विश्व एक मंच पर है , चाटुकारिता का एक नया रूप संसार में है जो मानव सभ्यता के लिए खतरे की घंटी है l स्वयं को चापलूस कहलाने से कद कुछ कम हो जाता है , इसलिए जिनके पास अपार धन -वैभव है , वे उस धन का दान -पुण्य भी करते हैं लेकिन इसमें उनका नि :स्वार्थ भाव नहीं होता , वे अपने धन के बल पर बड़े -बड़े नेताओं , अधिकारियों , संस्थाओं को भी अपने नियंत्रण में कर लेते हैं l मानव जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित नीति निर्धारण में भी उनका दखल हो जाता है l फिर वे ही नीतियाँ लागू होती हैं जिसमे उनका हित हो , उनकी संपदा बढ़े l प्रजा का हित उपेक्षित हो जाता है l धन मानव जीवन के लिए अति आवश्यक है लेकिन जब यही धन मानव जीवन के विभिन्न क्षेत्रो ---शिक्षा , चिकित्सा , कृषि , मनोरंजन आदि पर अपना कब्ज़ा कर लेता है तो वह उसे व्यवसाय बन देता है और व्यापार का मुख्य उदेश्य ही लाभ कमाना है l
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