आचार्य श्री का कहना है --- ' फिल्मों में पहला स्थान लेखक का , दूसरा निर्देशक , तीसरा गीतकार और संगीतकार , तब चौथा स्थान कलाकार का है l यदि लेखक और निर्देशक तय कर लें कि फिल्म से समाज को सार्थक देना है और धनवान उनकी प्रतिभा पर विश्वास करें तो सिनेमा
जन क्रांति कर सकता है l "
आचार्य जी ने एक बार अपने युग की दो फिल्मों की चर्चा की थी l इनमें पहली फिल्म थी
' महात्मा विदुर ' जिस पर अंग्रेजों ने पाबन्दी लगा दी थी l और दूसरी फिल्म थी --- ' त्याग भूमि ' जिसका नायक ब्राह्मण होते हुए भी हरिजनों की बस्ती में रहता है और सादा जीवन व उच्च विचार के आदर्श को अपनाता है l उन्होंने बताया कि इन फिल्मों ने अपने समय में लोगों को बहुत प्रभावित किया था l
विद्वानों का कहना है --- ' सिनेमा की संवेदना लोगों के दिलों को छूती है , उनकी भावनाओं को इच्छित दिशा में सहज ही मोड़ देती है l सर्वेक्षण में पाया यही गया है कि जिस समय लोग सिनेमा देखते हैं , उस समय उनकी तर्क क्षमता , विश्लेषण करने वाली पैनी बुद्धि सुप्त सी हो जाती है l बस खुले रहते हैं दिल के द्वार , सिनेमा के प्रत्येक दृश्य में होने वाली भावनाओं की कशमकश के साथ वे जीने लगते हैं l सिनेमा देखे जाने के बाद भी यह स्थिति देर तक बनी रहती है l "
फिल्म निर्माण खर्चीला होता है इसलिए फिल्म निर्माता लोगों की भावनाओं का शोषण कर अपनी जेब भरते हैं l हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है -- समाज को पतन की राह पर धकेलने से बड़ा कोई पाप नहीं l प्रकृति में क्षमा का प्रावधान नहीं होता l
आचार्य श्री ने लिखा है --- सामाजिक परिवर्तन में सिनेमा की बड़ी भूमिका है l यह सामाजिक विचार को परिष्कृत करने एवं भावनाओं को संवेदनशील बनाने का कार्य कर सकता है l '
जन क्रांति कर सकता है l "
आचार्य जी ने एक बार अपने युग की दो फिल्मों की चर्चा की थी l इनमें पहली फिल्म थी
' महात्मा विदुर ' जिस पर अंग्रेजों ने पाबन्दी लगा दी थी l और दूसरी फिल्म थी --- ' त्याग भूमि ' जिसका नायक ब्राह्मण होते हुए भी हरिजनों की बस्ती में रहता है और सादा जीवन व उच्च विचार के आदर्श को अपनाता है l उन्होंने बताया कि इन फिल्मों ने अपने समय में लोगों को बहुत प्रभावित किया था l
विद्वानों का कहना है --- ' सिनेमा की संवेदना लोगों के दिलों को छूती है , उनकी भावनाओं को इच्छित दिशा में सहज ही मोड़ देती है l सर्वेक्षण में पाया यही गया है कि जिस समय लोग सिनेमा देखते हैं , उस समय उनकी तर्क क्षमता , विश्लेषण करने वाली पैनी बुद्धि सुप्त सी हो जाती है l बस खुले रहते हैं दिल के द्वार , सिनेमा के प्रत्येक दृश्य में होने वाली भावनाओं की कशमकश के साथ वे जीने लगते हैं l सिनेमा देखे जाने के बाद भी यह स्थिति देर तक बनी रहती है l "
फिल्म निर्माण खर्चीला होता है इसलिए फिल्म निर्माता लोगों की भावनाओं का शोषण कर अपनी जेब भरते हैं l हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है -- समाज को पतन की राह पर धकेलने से बड़ा कोई पाप नहीं l प्रकृति में क्षमा का प्रावधान नहीं होता l
आचार्य श्री ने लिखा है --- सामाजिक परिवर्तन में सिनेमा की बड़ी भूमिका है l यह सामाजिक विचार को परिष्कृत करने एवं भावनाओं को संवेदनशील बनाने का कार्य कर सकता है l '
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