पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " विज्ञानं ने मनुष्य के आगे सुख - सुविधाओं की झड़ी लगा दी है , लेकिन चेतना के स्तर पर वह वही है , जहाँ वह आदिम युग में था अथवा उसके बाद के उस युग में जबकि मनुष्य रोटी के एक टुकड़े के लिए अपने भाई का क़त्ल कर देता था और इंच भर जमीन के लिए अपने से कमजोर व्यक्तियों को गाजर - मूली की तरह काट देता था l विज्ञान की प्रगति ने मनुष्य के हाथों में समृद्धि और सम्पन्नता का अक्षय कोष सौंपा तो उसके साथ एक से एक बढे - चढ़े मारक शस्त्र भी सौंपे l " आचार्य श्री लिखते हैं ---- " अस्त्र - शस्त्र व्यर्थ नहीं हैं , नर पिशाचों को ठिकाने लगाने के लिए उनकी आवश्यकता हो सकती है l परन्तु वही शक्ति जब उद्धत , उन्मत्त व्यक्तियों के हाथों में चली जाती है तो हजारो - लाखों निर्दोष व्यक्ति कीड़े - मकोड़ों की तरह मसल दिए जाते हैं l प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में मनुष्य ने इस स्थिति को पूरी यंत्रणा के साथ भोगा है l इसकी पुनरावृत्ति न हो , इसके लिए मनुष्य की चेतना को परिष्कृत और संस्कारित करने तथा उसमे देवत्व का उदय करने का प्रयास जरुरी है l मनुष्य को नैतिक , मर्यादित और अनुशासित रहने के लिए ईश्वर के प्रति आस्था और कर्म फल में विश्वास आवश्यक है l शक्ति और साधन के अहंकार में मनुष्य स्वयं को ईश्वर न समझे l "
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