पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----' देवता यदि कहीं हैं , तो हमारे ही अन्दर सत्प्रवृत्तियों के रूप में हैं l और असुर हैं , तो वे भी हमारे अन्दर पाशविक प्रवृत्तियों के रूप में हैं l जो विवेकशील हैं, वे विलास उपभोग के मायाजाल में न पड़कर पाशविक प्रवृत्तियों को स्वयं पर हावी नहीं होने देते l ' देवराज इंद्र को असुरों से अनेक बार परस्त होना पड़ा l भगवान की विशेष सहायता से ही बड़ी कठिनाई के साथ अपना इन्द्रासन लौटाने में सफल हो सके l एक दिन इस बार -बार की पराजय का कारण प्रजापति से पूछा , तो उन्होंने कहा --- ऐश्वर्य की रक्षा संयम से होती है l जो वैभव पाकर प्रमाद में फंस जाते हैं , उन्हें पराभव का मुँह देखना पड़ता है l एक कथा है ------- दो संत तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे l एक विशालकाय वृक्ष के नीचे उन्होंने आश्रय लिया और आगे बढ़े l यात्रा से जब अगले वर्ष वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि जिस सघन वृक्ष की छाया में उन्होंने भोजन किया था , विश्राम किया था , वह गिरा पड़ा है l पहले संत ने अपने वरिष्ठ संत से पूछा --- " महात्मन ! यह कैसे हुआ ? इतनी अल्प अवधि में यह वृक्ष कैसे गिर गया ? " संत बोले --- " तात ! यह वृक्ष छिद्रों के कारण गिरा है l प्राण था --- इसका जीवन रस , जो गोंद रूप में सतत बहता रहा l उसे पाने की लालसा में मनुष्य ने उसमें छेद कर उसे खोखला बना दिया l खोखली वस्तु कभी खड़ी नहीं रह सकती l झंझावातों को सहन न कर पाने के कारण ही इसकी यह गति हुई है l '
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