पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने लिखा है ---- ' धर्म एक शाश्वत नीति दर्शन का नाम है जो मूलत: संवेदना की धुरी पर जन्म लेता है l देव संस्कृति ने धर्म को इसी अर्थ में लिया है l यही कारण है कि इसके गर्भ में सभी मत - सम्प्रदाय पनपते - विकसित होते चले गए l '
आचार्य श्री आगे लिखते हैं --- मानव की संवेदना शीलता का विकास ही धर्म है l वस्तुत: धर्म हमें कर्तव्य की प्रेरणा देता है , साथ ही फल की ओर से तटस्थ रहने का आदेश भी देता है l धर्म का एकमेव लक्ष्य है --- त्याग , संवेदना का जागरण तथा पारस्परिक सद्भाव का विकास l इस भावना का जितना विस्तार होगा , धर्म की उतनी ही रक्षा होगी और आस्था संकट की विभीषिका भी तभी मिटेगी l '
संवेदना क्यों जरुरी है ? इस सम्बन्ध में यह प्रसंग है --- काशिराज युवराज संदीप के विकास से संतुष्ट थे l वे प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाते l व्यायाम , घुड़सवारी करते , समय पर अध्ययन और राजदरबार के कार्यों में रूचि लेना आदि प्रवृतियां ठीक थीं l एक क्षण भी न गंवाते और न किसी दुर्व्यसन में उलझते , किन्तु राज पुरोहित बार - बार आग्रह करते कि उन्हें कुछ वर्षों के लिए किसी संत के सान्निध्य में , आश्रम में रखने की व्यवस्था बनाई जाये l काशीराज सोचते थे कि राजकुमार को इसी क्रम में राजकार्य का अनुभव बढ़ाने का अवसर दिया जाये l
तभी एक घटना घटी l राजकुमार नगर भ्रमण के लिए घोड़े पर निकले l जहाँ वे रुकते स्नेह भाव से नागरिक उन्हें घेर लेते l एक बालक कुतूहलवश घोड़े के पास जाकर उसकी पूंछ सहलाने लगा l घोड़े ने लात फटकारी तो बालक दूर जा गिरा l उसके पैर की हड्डी टूट गई l राजकुमार ने देखा , हंसकर बोले , असावधानी बरतने वालों का यही हाल होता है , और आगे बढ़ गए l सिद्धान्तः बात सही थी लेकिन लोगों को व्यवहार खटक गया l
काशिराज को सारा विवरण मिला , तो वे भी दुःखी हुए l राजपुरोहित ने कहा ---- महाराज ! स्पष्ट हुआ है कि युवराज में संवेदनाओं का अभाव है l मात्र सतर्कता और सक्रियता के बल पर वे जनश्रद्धा का अर्जन और पोषण नहीं कर पाएंगे l हो सकता है कभी क्रूर कर्मी भी बन जाएँ l इसलिए समय रहते युवराज की इस कमी को पूरा कर लिया जाना चाहिए l राजा का समाधान हो गया और उन्होंने राजपुरोहित के मतानुसार व्यवस्था कर दी l
आचार्य श्री आगे लिखते हैं --- मानव की संवेदना शीलता का विकास ही धर्म है l वस्तुत: धर्म हमें कर्तव्य की प्रेरणा देता है , साथ ही फल की ओर से तटस्थ रहने का आदेश भी देता है l धर्म का एकमेव लक्ष्य है --- त्याग , संवेदना का जागरण तथा पारस्परिक सद्भाव का विकास l इस भावना का जितना विस्तार होगा , धर्म की उतनी ही रक्षा होगी और आस्था संकट की विभीषिका भी तभी मिटेगी l '
संवेदना क्यों जरुरी है ? इस सम्बन्ध में यह प्रसंग है --- काशिराज युवराज संदीप के विकास से संतुष्ट थे l वे प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाते l व्यायाम , घुड़सवारी करते , समय पर अध्ययन और राजदरबार के कार्यों में रूचि लेना आदि प्रवृतियां ठीक थीं l एक क्षण भी न गंवाते और न किसी दुर्व्यसन में उलझते , किन्तु राज पुरोहित बार - बार आग्रह करते कि उन्हें कुछ वर्षों के लिए किसी संत के सान्निध्य में , आश्रम में रखने की व्यवस्था बनाई जाये l काशीराज सोचते थे कि राजकुमार को इसी क्रम में राजकार्य का अनुभव बढ़ाने का अवसर दिया जाये l
तभी एक घटना घटी l राजकुमार नगर भ्रमण के लिए घोड़े पर निकले l जहाँ वे रुकते स्नेह भाव से नागरिक उन्हें घेर लेते l एक बालक कुतूहलवश घोड़े के पास जाकर उसकी पूंछ सहलाने लगा l घोड़े ने लात फटकारी तो बालक दूर जा गिरा l उसके पैर की हड्डी टूट गई l राजकुमार ने देखा , हंसकर बोले , असावधानी बरतने वालों का यही हाल होता है , और आगे बढ़ गए l सिद्धान्तः बात सही थी लेकिन लोगों को व्यवहार खटक गया l
काशिराज को सारा विवरण मिला , तो वे भी दुःखी हुए l राजपुरोहित ने कहा ---- महाराज ! स्पष्ट हुआ है कि युवराज में संवेदनाओं का अभाव है l मात्र सतर्कता और सक्रियता के बल पर वे जनश्रद्धा का अर्जन और पोषण नहीं कर पाएंगे l हो सकता है कभी क्रूर कर्मी भी बन जाएँ l इसलिए समय रहते युवराज की इस कमी को पूरा कर लिया जाना चाहिए l राजा का समाधान हो गया और उन्होंने राजपुरोहित के मतानुसार व्यवस्था कर दी l
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