' अवसर न होने पर किसी का नि:स्वार्थ अथवा ईमानदार बने रहना कोई बड़ी बात नहीं । विशेषता तो तब है जब अवसर हाथ आने पर भी नि:स्वार्थ तथा ईमानदार बना रहा जाये । '
साधारण अर्थ में वे सभी राज्य कर्मचारी जो अपना कार्य ईमानदारी और मुस्तैदी से करते हैं , कर्तव्य परायण ही हैं । जो विद्दार्थी आलस्य त्याग कर पूर्ण मनोयोग से विद्दाभ्यास करते हैं और समस्त अनावश्यक शौकों को छोड़कर अपनी पूरी शक्ति परीक्षा में सफल होने में लगा देते हैं उन्हें भी कर्तव्य परायण माना जायेगा ।
परन्तु इस प्रकार की कर्तव्य परायणता प्राय: वेतन तथा किसी भावी लाभ की आशा से उत्पन्न होती है इसलिए उसमे कोई विशेषता नहीं मानी जाती , पर महारानी अहिल्याबाई ऐसे सर्वोच्च पद पर थीं कि उनके लिए किसी प्रकार के लाभ या धन प्राप्ति की भावना कर्तव्य परायणता की प्रेरक नहीं हो सकती थी ।
संसार में तो प्राय: यह देखा जाता है कि सम्पति तथा शक्ति के इस प्रकार प्राप्त होने पर लोग मदोन्मत हो जाते हैं और उचित - अनुचित का का ध्यान त्याग कर केवल आमोद - प्रमोद को ही जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं । सज्जन और कर्तव्य निष्ठ माने जाने वाले व्यक्ति भी अपनी पदवी और सुरुचि के अनुसार साधनों का उपयोग अपने सुख के लिए करते हैं और कोई उसको बुरा भी नहीं बतलाता ।
लेकिन महारानी अहिल्याबाई उन मानव - रत्नों में से थीं जो सब प्रकार के साधन सामने होने पर और उन पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध न होने पर भी उनसे इस प्रकार पृथक बने रहते हैं जैसे जल में कमल ।
महारानी अहिल्याबाई एक निर्धन किसान की बेटी थीं , फिर युवरानी , राज - वधू और महारानी होने पर , इतने बड़े राज्य की एकमात्र स्वामिनी होने पर भी उनका आहार - विहार , रहन - सहन साधारण था । वे जमीन पर सोती थीं और एक मामूली सूती साड़ी पहनती थीं , किन्तु राज्य - कार्य में इतना परिश्रम करती थीं , जितना चार कर्मचारी मिलकर भी नहीं कर सकते । वह अपने धन का उपयोग राज्य - व्यवस्था को उत्तम बनाने और प्रजा की सुख - सुविधा में वृद्धि करने के लिए करती थीं । जो शेष बचता था उसे परमार्थ व परोपकार क्र कार्यों में खर्च करती थीं ।
जब ईमानदारी और सच्चाई के साथ पूरा परिश्रम करते हुए उसके साथ त्याग का भाव रखा जाये तब वह महामानवता का लक्षण हो जाता है , यही विशेषता महारानी अहिल्याबाई की कर्तव्य परायणता में पाई जाती है जिसके कारण उनको श्रद्धा की भावना से अभी तक याद किया जाता है ।
साधारण अर्थ में वे सभी राज्य कर्मचारी जो अपना कार्य ईमानदारी और मुस्तैदी से करते हैं , कर्तव्य परायण ही हैं । जो विद्दार्थी आलस्य त्याग कर पूर्ण मनोयोग से विद्दाभ्यास करते हैं और समस्त अनावश्यक शौकों को छोड़कर अपनी पूरी शक्ति परीक्षा में सफल होने में लगा देते हैं उन्हें भी कर्तव्य परायण माना जायेगा ।
परन्तु इस प्रकार की कर्तव्य परायणता प्राय: वेतन तथा किसी भावी लाभ की आशा से उत्पन्न होती है इसलिए उसमे कोई विशेषता नहीं मानी जाती , पर महारानी अहिल्याबाई ऐसे सर्वोच्च पद पर थीं कि उनके लिए किसी प्रकार के लाभ या धन प्राप्ति की भावना कर्तव्य परायणता की प्रेरक नहीं हो सकती थी ।
संसार में तो प्राय: यह देखा जाता है कि सम्पति तथा शक्ति के इस प्रकार प्राप्त होने पर लोग मदोन्मत हो जाते हैं और उचित - अनुचित का का ध्यान त्याग कर केवल आमोद - प्रमोद को ही जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं । सज्जन और कर्तव्य निष्ठ माने जाने वाले व्यक्ति भी अपनी पदवी और सुरुचि के अनुसार साधनों का उपयोग अपने सुख के लिए करते हैं और कोई उसको बुरा भी नहीं बतलाता ।
लेकिन महारानी अहिल्याबाई उन मानव - रत्नों में से थीं जो सब प्रकार के साधन सामने होने पर और उन पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध न होने पर भी उनसे इस प्रकार पृथक बने रहते हैं जैसे जल में कमल ।
महारानी अहिल्याबाई एक निर्धन किसान की बेटी थीं , फिर युवरानी , राज - वधू और महारानी होने पर , इतने बड़े राज्य की एकमात्र स्वामिनी होने पर भी उनका आहार - विहार , रहन - सहन साधारण था । वे जमीन पर सोती थीं और एक मामूली सूती साड़ी पहनती थीं , किन्तु राज्य - कार्य में इतना परिश्रम करती थीं , जितना चार कर्मचारी मिलकर भी नहीं कर सकते । वह अपने धन का उपयोग राज्य - व्यवस्था को उत्तम बनाने और प्रजा की सुख - सुविधा में वृद्धि करने के लिए करती थीं । जो शेष बचता था उसे परमार्थ व परोपकार क्र कार्यों में खर्च करती थीं ।
जब ईमानदारी और सच्चाई के साथ पूरा परिश्रम करते हुए उसके साथ त्याग का भाव रखा जाये तब वह महामानवता का लक्षण हो जाता है , यही विशेषता महारानी अहिल्याबाई की कर्तव्य परायणता में पाई जाती है जिसके कारण उनको श्रद्धा की भावना से अभी तक याद किया जाता है ।
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