विलियम वेडर वर्न ( 25 मार्च 1838) ने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में उत्कृष्ट - साहित्य , धर्म - ग्रन्थ . ईसा के उपदेशों का अध्ययन किया , सत्साहित्य के अध्ययन और चिंतन - मनन से उनमे अनौचित्य का विरोध करने का साहस जाग गया । कोई मनुष्य किसी को गुलाम बनाकर उस पर अत्याचार करे , यह बात उन्हें असहनीय लगी ।
उन दिनों भारतीयों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार की बातें सुन - सुनकर विलियम यह सोचने को विवश हो गए कि हिन्दुस्तान का आदमी आखिर किस मिट्टी का बना हुआ है जो इतने अत्याचारों को भी चुपचाप सह लेता है , उफ तक नहीं करता ' । इस विषय में उन्हें जितनी भी पुस्तकें मिली, सब पढ़ डालीं , इससे भारतीय जन - मानस के प्रति उनका यह द्रष्टिकोण बना कि भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का आभाव है और वे आवश्यकता से अधिक भाग्यवादी हैं ।
अत: उन्होंने चाहे जिस प्रकार भारत पहुंचकर भारतीय समाज में राष्ट्रीय चेतना जगाने का निश्चय किया । उन्होंने भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा दी और उत्तीर्ण होकर बाईस वर्ष की आयु में अपने कार्य क्षेत्र भारत आ गये । अपने मानवीय व्यवहार से वो यहाँ लोगों के श्रद्धेय बन गए । किन्तु इससे उनका उद्देश्य पूरा नहीं हो रहा था , अत: उन्होंने सिविल सर्विस से त्यागपत्र दे दिया और विचारों व भाषणों के माध्यम से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जगाने का प्रयास करने लगे । जब उनके मित्रों ने कहा कि अंग्रेज होकर तुम अंग्रेज राज्य के हितों पर चोट कर अच्छा नहीं कर रहे हो । तो उन्होंने कहा ---- महाशय ! मैं अंग्रेज होने से पहले इनसान हूँ और इनसान होने के नाते मुझसे यह कभी सहन नहीं होता कि स्वार्थ के वशीभूत होकर किसी के हितों पर आघात किया जाये विलियम का कहना था ----- यदि किसी देश और समाज की कमजोरियों का अनुचित लाभ उठाना ही देश भक्ति है तो मुझे स्वप्न में भी उसकी चाह नहीं है । "
एक बार उन्होंने कहा था ---- " मैं अपने शेष जीवन को भारत के लिए ही अर्पित करता हूँ । " उन्होंने भारत में एक ऐसा वर्ग तैयार किया जिसने आगे चलकर स्वराज्य आन्दोलन का नेतृत्व किया । गोपाल कृष्ण गोखले , महामना मालवीय और लोकमान्य तिलक जैसे अनेकों विभूतियों को ढूँढने और आगे बढ़ाने का अधिकांश श्रेय विलियम वेडर वर्न को ही है ।
उन दिनों भारतीयों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार की बातें सुन - सुनकर विलियम यह सोचने को विवश हो गए कि हिन्दुस्तान का आदमी आखिर किस मिट्टी का बना हुआ है जो इतने अत्याचारों को भी चुपचाप सह लेता है , उफ तक नहीं करता ' । इस विषय में उन्हें जितनी भी पुस्तकें मिली, सब पढ़ डालीं , इससे भारतीय जन - मानस के प्रति उनका यह द्रष्टिकोण बना कि भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का आभाव है और वे आवश्यकता से अधिक भाग्यवादी हैं ।
अत: उन्होंने चाहे जिस प्रकार भारत पहुंचकर भारतीय समाज में राष्ट्रीय चेतना जगाने का निश्चय किया । उन्होंने भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा दी और उत्तीर्ण होकर बाईस वर्ष की आयु में अपने कार्य क्षेत्र भारत आ गये । अपने मानवीय व्यवहार से वो यहाँ लोगों के श्रद्धेय बन गए । किन्तु इससे उनका उद्देश्य पूरा नहीं हो रहा था , अत: उन्होंने सिविल सर्विस से त्यागपत्र दे दिया और विचारों व भाषणों के माध्यम से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जगाने का प्रयास करने लगे । जब उनके मित्रों ने कहा कि अंग्रेज होकर तुम अंग्रेज राज्य के हितों पर चोट कर अच्छा नहीं कर रहे हो । तो उन्होंने कहा ---- महाशय ! मैं अंग्रेज होने से पहले इनसान हूँ और इनसान होने के नाते मुझसे यह कभी सहन नहीं होता कि स्वार्थ के वशीभूत होकर किसी के हितों पर आघात किया जाये विलियम का कहना था ----- यदि किसी देश और समाज की कमजोरियों का अनुचित लाभ उठाना ही देश भक्ति है तो मुझे स्वप्न में भी उसकी चाह नहीं है । "
एक बार उन्होंने कहा था ---- " मैं अपने शेष जीवन को भारत के लिए ही अर्पित करता हूँ । " उन्होंने भारत में एक ऐसा वर्ग तैयार किया जिसने आगे चलकर स्वराज्य आन्दोलन का नेतृत्व किया । गोपाल कृष्ण गोखले , महामना मालवीय और लोकमान्य तिलक जैसे अनेकों विभूतियों को ढूँढने और आगे बढ़ाने का अधिकांश श्रेय विलियम वेडर वर्न को ही है ।
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