श्री गंगाराम ( जन्म 1851 ) ने सरकारी इंजीनियरिंग विभाग में लगभग 30 वर्ष तक नौकरी करके अनेक जनहितकारी कार्य किये | वे अपना धन अन्य अमीरों की भांति तरह - तरह के शौक में खर्च नहीं करते थे , वरन वे स्वयं सादा जीवन व्यतीत करते हुए , उसका व्यय ऐसे कार्यों में करते थे जिससे अन्य दीन - दुःखी लोगों की भलाई हो सके ।
उनके पास सहायता प्राप्त करने के लिए अनेक लोग आते थे , तो वे उनके साथ कोरी संवेदना प्रकट न करके उनके लिए कोई न कोई काम ढूँढा करते थे ।
एक कर्मचारी ने श्री गंगाराम से कहा कि -- " एक साधारण वेतन पाने वाले युवक की मृत्यु हो गई है , उसकी माँ और पत्नी के सामने निर्वाह की कठिन समस्या है , कुछ रूपये की सहायता करें । "
उन्होंने कहा ये रूपये कितने दिन चलेंगे , तुम यह पता करो कि वे स्त्रियाँ सिलाई मशीन चला सकती हैं या नहीं ? जब यह मालूम हो गया कि वे सिलाई जानती हैं तो उन्होंने एक सिलाई मशीन क्रय कर उनके पास भिजवा दी । कुछ दिन बाद उन्हें मालूम हुआ कि उस मशीन की सहायता से वे 50 - 60 रुपया मासिक कमा लेती हैं , जीवन निर्वाह आसानी से हो रहा है तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई उन दिनों भारत में हिन्दू समाज में विधवाओं की समस्या बड़ी गम्भीर थी । उन्होंने ' विधवा आश्रम ' खोले जहाँ महिलाओं को सिलाई , बुनाई, कढ़ाई , गोटे का काम आदि गृह- उद्दोगों की शिक्षा दी जाती थी जिससे वे आत्म निर्भर हो सकें । उनके बनाये सामान को बेचने और उसका लाभ उनके हिसाब में जमा करने की भी व्यवस्था की ।
श्री गंगाराम ने बेकार और निराश्रित लोगों को किसी किसी जीवन निर्वाह योग्य रोजगार में लगाने की इतनी योजनायें प्रचलित कीं कि अनेक लोग भगवान से यही प्रार्थना करने लगे कि वह उनको दीर्घ जीवन दे , जिससे वे संकट ग्रस्त नर - नारियों की सहायता करते रहें ।
जिन दिनों वे लाहौर में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तो पढ़ते हुए मकान के भीतर बने कुएं में गिर गए l मकान मालिक के नौकर कालू ने उन्हें तुरंत बाहर निकाला । जब वे प्रसिद्ध व्यक्ति हो गए तब वह कालू नौकर भी उनके पास आया , बहुत वृद्ध व जीर्ण - शीर्ण हो गया था । गंगाराम उसे भूले नहीं थे , तुरंत उसके भरण - पोषण की उचित व्यवस्था कर दी । साथ ही उन्हें ख्याल आया कि न मालूम ऐसे कितने ' कालू ' होंगे जो अपने अंतिम समय में भूखे - प्यासे रहकर आहें भरते जीवन पूरा कर रहे होंगे । इस विचार के आने के बाद उन्होंने ' हिन्दू अपाहिज खाना ' की स्थापना की जिससे अनेक आश्रय हीन वृद्धों को अपना अंतिम जीवन काटने की सुविधा हो गई ।
उन्होंने अपने जीवन में जितने लोगों को रोजगार से लगा दिया , उनकी संख्या गिन सकना कठिन है । विधवाओं की सहायता की - अनेक विधवाओं के विवाह कराये , उन्हें स्वावलंबी बनाने में मदद की , अनेक अवसरों पर प्रकट भी हुआ कि विधवाएं उनमे देवता के सामान भक्ति रखती थीं । जो अपना निर्वाह स्वयं कर सकने में असमर्थ थे उन्हें आर्थिक सहायता दी ।
उनके पास सहायता प्राप्त करने के लिए अनेक लोग आते थे , तो वे उनके साथ कोरी संवेदना प्रकट न करके उनके लिए कोई न कोई काम ढूँढा करते थे ।
एक कर्मचारी ने श्री गंगाराम से कहा कि -- " एक साधारण वेतन पाने वाले युवक की मृत्यु हो गई है , उसकी माँ और पत्नी के सामने निर्वाह की कठिन समस्या है , कुछ रूपये की सहायता करें । "
उन्होंने कहा ये रूपये कितने दिन चलेंगे , तुम यह पता करो कि वे स्त्रियाँ सिलाई मशीन चला सकती हैं या नहीं ? जब यह मालूम हो गया कि वे सिलाई जानती हैं तो उन्होंने एक सिलाई मशीन क्रय कर उनके पास भिजवा दी । कुछ दिन बाद उन्हें मालूम हुआ कि उस मशीन की सहायता से वे 50 - 60 रुपया मासिक कमा लेती हैं , जीवन निर्वाह आसानी से हो रहा है तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई उन दिनों भारत में हिन्दू समाज में विधवाओं की समस्या बड़ी गम्भीर थी । उन्होंने ' विधवा आश्रम ' खोले जहाँ महिलाओं को सिलाई , बुनाई, कढ़ाई , गोटे का काम आदि गृह- उद्दोगों की शिक्षा दी जाती थी जिससे वे आत्म निर्भर हो सकें । उनके बनाये सामान को बेचने और उसका लाभ उनके हिसाब में जमा करने की भी व्यवस्था की ।
श्री गंगाराम ने बेकार और निराश्रित लोगों को किसी किसी जीवन निर्वाह योग्य रोजगार में लगाने की इतनी योजनायें प्रचलित कीं कि अनेक लोग भगवान से यही प्रार्थना करने लगे कि वह उनको दीर्घ जीवन दे , जिससे वे संकट ग्रस्त नर - नारियों की सहायता करते रहें ।
जिन दिनों वे लाहौर में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तो पढ़ते हुए मकान के भीतर बने कुएं में गिर गए l मकान मालिक के नौकर कालू ने उन्हें तुरंत बाहर निकाला । जब वे प्रसिद्ध व्यक्ति हो गए तब वह कालू नौकर भी उनके पास आया , बहुत वृद्ध व जीर्ण - शीर्ण हो गया था । गंगाराम उसे भूले नहीं थे , तुरंत उसके भरण - पोषण की उचित व्यवस्था कर दी । साथ ही उन्हें ख्याल आया कि न मालूम ऐसे कितने ' कालू ' होंगे जो अपने अंतिम समय में भूखे - प्यासे रहकर आहें भरते जीवन पूरा कर रहे होंगे । इस विचार के आने के बाद उन्होंने ' हिन्दू अपाहिज खाना ' की स्थापना की जिससे अनेक आश्रय हीन वृद्धों को अपना अंतिम जीवन काटने की सुविधा हो गई ।
उन्होंने अपने जीवन में जितने लोगों को रोजगार से लगा दिया , उनकी संख्या गिन सकना कठिन है । विधवाओं की सहायता की - अनेक विधवाओं के विवाह कराये , उन्हें स्वावलंबी बनाने में मदद की , अनेक अवसरों पर प्रकट भी हुआ कि विधवाएं उनमे देवता के सामान भक्ति रखती थीं । जो अपना निर्वाह स्वयं कर सकने में असमर्थ थे उन्हें आर्थिक सहायता दी ।
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