' दूरदृष्टि के अभाव में व्यक्ति का जीवन व्यर्थ चला जाता है l ' धृतराष्ट्र अंधे थे , वे मोहान्ध भी थे l आजीवन विभिन्न उपायों द्वारा अपने शरीर तथा पुत्रों को ही संपन्न बनाने का स्वप्न संजोते रहे l परिणाम क्या हुआ ? सर्वनाश l
पुराणों में भक्त प्रह्लाद की कथा है -- प्रह्लाद के हृदय में विवेक था , वह वही करना चाहता था ' जो न्याय एवं विवेकयुक्त हो l ' उसका पिता हिरण्यकश्यपु चाहता था कि उसका पुत्र उसी के कहने में चले , पिता होने के कारण उसकी अनुचित और अनीतियुक्त बातों को भी माने और जिस कुमार्ग पर वह चलाना चाहता है , उसी पर चले l
प्रह्लाद ने औचित्य को पिता से भी बढ़कर माना और कहा ---- पितृभक्त के नाते आपकी सेवा करना और सुख देना मेरा कर्तव्य है , उसे मैं निष्ठापूर्वक पालन करूँगा l पर अनीति एवं अविवेकयुक्त बात पिता की भी स्वीकार नहीं की जाएगी l पिता के कहने पर भी सत्य या धर्म को नहीं छोड़ा जा सकता , इसलिए मैं आपकी केवल उचित आज्ञाएं ही मानूंगा l
ऋषियों का वचन है --- ' बालक द्वारा कही गई युक्तिसंगत बात को मान लेना चाहिए l '
किन्तु हिरण्यकश्यपु क्रुद्ध हो गया l उसने प्रह्लाद को विवश करने के लिए अनेक कष्ट दिए , पहाड़ों पर से गिराया , बहन होलिका के साथ अग्नि में जलाने की चेष्टा की, पर ईश्वर ने उसकी रक्षा की l अंत में एक लोहे के खम्भे से उसे बाँध दिया गया और मार डालने की तैयारी की जाने लगी l तब प्रह्लाद की रक्षा के लिए उस खम्भे से भगवान नृसिंह प्रकट हो गए और हिरण्यकश्यपु को फाड़ - चीड़ के रख दिया l
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी वाङ्मय में लिखते हैं ---- ' मनुष्यों में दो तरह के व्यक्ति होते हैं -- एक कायर , कृपण , दीन , डरपोक , अकर्मण्य , इन्हे श्वान - श्रृगाल की श्रेणी में गिना जा सकता है l दूसरे होते हैं न्याय की रक्षा के लिए , सत्य की रक्षा के लिए , इन्हे कहते हैं --- नरसिंह l ऐसे नरसिंहों की सदा ही जयकार होती है l
पुराणों में भक्त प्रह्लाद की कथा है -- प्रह्लाद के हृदय में विवेक था , वह वही करना चाहता था ' जो न्याय एवं विवेकयुक्त हो l ' उसका पिता हिरण्यकश्यपु चाहता था कि उसका पुत्र उसी के कहने में चले , पिता होने के कारण उसकी अनुचित और अनीतियुक्त बातों को भी माने और जिस कुमार्ग पर वह चलाना चाहता है , उसी पर चले l
प्रह्लाद ने औचित्य को पिता से भी बढ़कर माना और कहा ---- पितृभक्त के नाते आपकी सेवा करना और सुख देना मेरा कर्तव्य है , उसे मैं निष्ठापूर्वक पालन करूँगा l पर अनीति एवं अविवेकयुक्त बात पिता की भी स्वीकार नहीं की जाएगी l पिता के कहने पर भी सत्य या धर्म को नहीं छोड़ा जा सकता , इसलिए मैं आपकी केवल उचित आज्ञाएं ही मानूंगा l
ऋषियों का वचन है --- ' बालक द्वारा कही गई युक्तिसंगत बात को मान लेना चाहिए l '
किन्तु हिरण्यकश्यपु क्रुद्ध हो गया l उसने प्रह्लाद को विवश करने के लिए अनेक कष्ट दिए , पहाड़ों पर से गिराया , बहन होलिका के साथ अग्नि में जलाने की चेष्टा की, पर ईश्वर ने उसकी रक्षा की l अंत में एक लोहे के खम्भे से उसे बाँध दिया गया और मार डालने की तैयारी की जाने लगी l तब प्रह्लाद की रक्षा के लिए उस खम्भे से भगवान नृसिंह प्रकट हो गए और हिरण्यकश्यपु को फाड़ - चीड़ के रख दिया l
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी वाङ्मय में लिखते हैं ---- ' मनुष्यों में दो तरह के व्यक्ति होते हैं -- एक कायर , कृपण , दीन , डरपोक , अकर्मण्य , इन्हे श्वान - श्रृगाल की श्रेणी में गिना जा सकता है l दूसरे होते हैं न्याय की रक्षा के लिए , सत्य की रक्षा के लिए , इन्हे कहते हैं --- नरसिंह l ऐसे नरसिंहों की सदा ही जयकार होती है l
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