विदुर जी ने जब देखा धृतराष्ट्र और दुर्योधन अनीति करना नहीं छोड़ते , तो सोचा कि इनका अन्न और इनका सान्निध्य मेरी वृत्तियों को भी प्रभावित करेगा , इसलिए वे नगर के बाहर वन में कुटी बनाकर पत्नी सहित रहने लगे l जंगल से भाजी तोड़ लेते , उबाल कर खा लेते और अपना समय सत्कार्यों और प्रभु - स्मरण में लगाते l श्रीकृष्ण जब संधि दूत बनकर गए और वार्ता असफल हो गई , तो वे धृतराष्ट्र , दुर्योधन, द्रोणाचार्य आदि सबका आमंत्रण अस्वीकार कर के विदुर जी के यहाँ जा पहुंचे और वहां भोजन करने की इच्छा प्रकट की l विदुर जी को यह संकोच हुआ कि प्रभु को शक - भाजी परोसने पड़ेंगे ? पूछा , ' आप भूखे भी थे , भोजन का समय भी था और उनका आग्रह भी , फिर आपने भोजन क्यों नहीं किया ? " भगवान बोले ---- " चाचाजी ! जिस भोजन को करना आपने उचित नहीं समझा , जो आपके गले नहीं उतरा , वह मुझे भी कैसे रुचता ? जिसमें आपने स्वाद पाया , उसमे मुझे स्वाद न मिलेगा , ऐसा आप कैसे सोचते हैं ? " विदुर जी भाव - विह्ल हो गए l प्रभु तो प्रेम और भावना के भूखे हैं l
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