'जीवन की सार्थकता कर्तव्य कर्म का सही ढंग से निर्वाह करने में है | जो कर्तव्य हमें मिला है ,जिसे हमें करने को दिया गया है ,उसे सही एवं श्रेष्ठ रूप में कर लेने में ही बुद्धिमता है |
धनवन्तरि भिषगाचार्य के अंतिम वर्ष में शोध कर रहे थे | औषधि शास्त्र का उन्होंने ऐसा अध्ययन किया था कि स्वयं कुलाधिपति भी कई बार उनसे आवश्यक जानकारियां उपलब्ध किया करते थे | आयुर्वेद का ऐसा गहन अध्ययन इतिहास में शायद ही कोई और कर सका हो | एक -एक ऋचा पर उन्होंने कितना श्रम किया ,यह तो वह स्वयं ही जानते थे |
पर आयुर्वेद का निष्णात धनवन्तरि कई दिन से गुरुकुल की सीमा से हिमालय तक भ्रमण कर रहें हैं ,एक -एक जड़ी एक -एक बूटी का प्रयोग कर डाला उन्होंने | पर एक भी तो ऐसी पत्ती नहीं निकली जो उनकी पीठ पर हो गये फोड़े के घाव को ठीक कर देती |
रात -दिन की लगातार खोज के उपरान्त भी सफलता नहीं मिली अत:पराजित सैनिक की भांति हारे -थके धनवन्तरि गुरुकुल की ओर लौट चले | वहां तक पहुँचते -पहुँचते भी हजारों बूटियों का प्रयोग करके देख लिया किंतु उन्हें न तो कोई जड़ी -बूटी मिली और न ही फोड़ा ठीक हुआ
सूखा मुख ,रूखे मुरझाये बाल -शिष्य की ऐसी विपन्न मुद्रा देख गुरु की आंखे छलछला आईं | उन्होंने कहा -"तात !बड़ा कष्ट पाया तुमने | "आचार्य प्रवर ने बड़ी करुणा -बड़े ममत्व के साथ उनका वस्त्र हटा कर देखा ,पीठ का घाव अभी घटा नहीं था ,कुछ बढ़ ही गया था | आचार्य ने कहा -"वत्स !आओ मेरे साथ चलो | तुम्हारा उपचार तो मेरे पास है | "
आश्रम से थोड़ी ही दूर पर एक औषधि का पौधा लगा था ,गुरु ने उसे तोड़ा और पीसकर उसका लेप उनकी पीठ पर लगाते हुए कहा -"वत्स !अब तुम्हारा घाव दो दिन में अच्छा हो जायेगा | "
निराश और दुखी धनवन्तरि ने कहा -"गुरुदेव !बूटी विद्दालय के इतने समीप ही थी ,आप उसे जानते भी थे | फिर व्यर्थ ही मुझे इतना क्यों दौड़ाया ?इतना कष्ट देकर आपने क्या पाया ?"
मौन हो ऋषि ने करुण नेत्रों से उनकी ओर देखा ,वह तो उनका अंत:करण था जिसने आप ही उत्तर दे दिया ---
"धनवन्तरि !इतनी कठिन साधना नहीं करते तो यह जो हजारों औषधियों का ज्ञान प्राप्त हुआ ,वह कहां से मिल पाता ?"
धनवन्तरि भिषगाचार्य के अंतिम वर्ष में शोध कर रहे थे | औषधि शास्त्र का उन्होंने ऐसा अध्ययन किया था कि स्वयं कुलाधिपति भी कई बार उनसे आवश्यक जानकारियां उपलब्ध किया करते थे | आयुर्वेद का ऐसा गहन अध्ययन इतिहास में शायद ही कोई और कर सका हो | एक -एक ऋचा पर उन्होंने कितना श्रम किया ,यह तो वह स्वयं ही जानते थे |
पर आयुर्वेद का निष्णात धनवन्तरि कई दिन से गुरुकुल की सीमा से हिमालय तक भ्रमण कर रहें हैं ,एक -एक जड़ी एक -एक बूटी का प्रयोग कर डाला उन्होंने | पर एक भी तो ऐसी पत्ती नहीं निकली जो उनकी पीठ पर हो गये फोड़े के घाव को ठीक कर देती |
रात -दिन की लगातार खोज के उपरान्त भी सफलता नहीं मिली अत:पराजित सैनिक की भांति हारे -थके धनवन्तरि गुरुकुल की ओर लौट चले | वहां तक पहुँचते -पहुँचते भी हजारों बूटियों का प्रयोग करके देख लिया किंतु उन्हें न तो कोई जड़ी -बूटी मिली और न ही फोड़ा ठीक हुआ
सूखा मुख ,रूखे मुरझाये बाल -शिष्य की ऐसी विपन्न मुद्रा देख गुरु की आंखे छलछला आईं | उन्होंने कहा -"तात !बड़ा कष्ट पाया तुमने | "आचार्य प्रवर ने बड़ी करुणा -बड़े ममत्व के साथ उनका वस्त्र हटा कर देखा ,पीठ का घाव अभी घटा नहीं था ,कुछ बढ़ ही गया था | आचार्य ने कहा -"वत्स !आओ मेरे साथ चलो | तुम्हारा उपचार तो मेरे पास है | "
आश्रम से थोड़ी ही दूर पर एक औषधि का पौधा लगा था ,गुरु ने उसे तोड़ा और पीसकर उसका लेप उनकी पीठ पर लगाते हुए कहा -"वत्स !अब तुम्हारा घाव दो दिन में अच्छा हो जायेगा | "
निराश और दुखी धनवन्तरि ने कहा -"गुरुदेव !बूटी विद्दालय के इतने समीप ही थी ,आप उसे जानते भी थे | फिर व्यर्थ ही मुझे इतना क्यों दौड़ाया ?इतना कष्ट देकर आपने क्या पाया ?"
मौन हो ऋषि ने करुण नेत्रों से उनकी ओर देखा ,वह तो उनका अंत:करण था जिसने आप ही उत्तर दे दिया ---
"धनवन्तरि !इतनी कठिन साधना नहीं करते तो यह जो हजारों औषधियों का ज्ञान प्राप्त हुआ ,वह कहां से मिल पाता ?"
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