महात्मा गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका में थे, उन दिनों वहां भारतीयों के साथ बहुत अपमानजनक व्यवहार किया जाता था । गाँधीजी ने इस अन्याय का प्रतिरोध करने के लिए ' सत्याग्रह आन्दोलन '
किया । जब तक वे दक्षिण अफ्रीका में रहे तब उनको यहां के सामयिक पत्रों में ' कर्मवीर गाँधी '
लिखा जाता था ।
उन्ही दिनों गुरुकुल कांगड़ी के ब्रह्मचारियों ने अपने भोजन में से दूध का व्यवहार बन्द करके और एक बाँध पर मजदूरी द्वारा 1500 रुपये इकट्ठे करके सत्याग्रह आन्दोलन की सहायतार्थ अफ्रीका भेजे थे । यह रुपया गांधीजी को ऐसी आवश्यकता के अवसर पर मिला जबकि आन्दोलन का काम धन की कमी से अटक रहा था ।
यह सहायता पाकर उन्होंने स्वामीजी को पत्र भेजा कि--- आपके शिष्यों ने सत्याग्रहियों के लिए जो कार्य किया है उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ और आपके प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहता हूँ । '
1916 में जब गांधीजी भारत आये तो बिना सूचना दिए ही गुरुकुल कांगड़ी पहुंचे । जब वह श्रद्धानन्द जी की कुटिया में गए तो आदर और श्रद्धा से अभिभूत होकर उन्होने स्वामीजी के पैर छुये । जब स्वामीजी ने परिचय पूछा तो उत्तर मिला----- " मैं हूँ आपका छोटा भाई मोहनदास कर्मचन्द गाँधी । स्वामीजी ने पुलकित होकर गाँधीजी को गले लगा लिया और बड़े प्रेम से उनको
' महात्मा ' कहकर पुकारा । तब से गांधीजी ' महात्मा ' के नाम से प्रसिद्ध हो गये |
महात्मा गाँधी, स्वामी श्रद्धानन्द जी का सदा एक महापुरुष के समान आदर करते थे । स्वामीजी के बलिदान का समाचार पाकर गांधीजी ने कहा था ---- ' वे वीरता और साहस के मूर्तरूप थे । वे वीर के सामान जिये और वीर के समान मरे । उनकी समस्त जिन्दगी शानदार थी और अंत भी वैसा ही शानदार हुआ । काश ! मुझे भी स्वामी श्रद्धानन्द की तरह शानदार मौत नसीब हो । "
संयोग से गाँधीजी की यह अभिलाषा ठीक इसी रुप में पूरी हुई । गोडसे ने स्वयं अमिट कलंक
ग्रहण करके महात्मा गाँधी को परमपद का अधिकारी बना दिया ।
किया । जब तक वे दक्षिण अफ्रीका में रहे तब उनको यहां के सामयिक पत्रों में ' कर्मवीर गाँधी '
लिखा जाता था ।
उन्ही दिनों गुरुकुल कांगड़ी के ब्रह्मचारियों ने अपने भोजन में से दूध का व्यवहार बन्द करके और एक बाँध पर मजदूरी द्वारा 1500 रुपये इकट्ठे करके सत्याग्रह आन्दोलन की सहायतार्थ अफ्रीका भेजे थे । यह रुपया गांधीजी को ऐसी आवश्यकता के अवसर पर मिला जबकि आन्दोलन का काम धन की कमी से अटक रहा था ।
यह सहायता पाकर उन्होंने स्वामीजी को पत्र भेजा कि--- आपके शिष्यों ने सत्याग्रहियों के लिए जो कार्य किया है उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ और आपके प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहता हूँ । '
1916 में जब गांधीजी भारत आये तो बिना सूचना दिए ही गुरुकुल कांगड़ी पहुंचे । जब वह श्रद्धानन्द जी की कुटिया में गए तो आदर और श्रद्धा से अभिभूत होकर उन्होने स्वामीजी के पैर छुये । जब स्वामीजी ने परिचय पूछा तो उत्तर मिला----- " मैं हूँ आपका छोटा भाई मोहनदास कर्मचन्द गाँधी । स्वामीजी ने पुलकित होकर गाँधीजी को गले लगा लिया और बड़े प्रेम से उनको
' महात्मा ' कहकर पुकारा । तब से गांधीजी ' महात्मा ' के नाम से प्रसिद्ध हो गये |
महात्मा गाँधी, स्वामी श्रद्धानन्द जी का सदा एक महापुरुष के समान आदर करते थे । स्वामीजी के बलिदान का समाचार पाकर गांधीजी ने कहा था ---- ' वे वीरता और साहस के मूर्तरूप थे । वे वीर के सामान जिये और वीर के समान मरे । उनकी समस्त जिन्दगी शानदार थी और अंत भी वैसा ही शानदार हुआ । काश ! मुझे भी स्वामी श्रद्धानन्द की तरह शानदार मौत नसीब हो । "
संयोग से गाँधीजी की यह अभिलाषा ठीक इसी रुप में पूरी हुई । गोडसे ने स्वयं अमिट कलंक
ग्रहण करके महात्मा गाँधी को परमपद का अधिकारी बना दिया ।
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