आचार्य श्री ने वाड्मय में लिखा है ---- ' पराधीनता मनुष्य के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है , वह चाहे शारीरिक हो या मानसिक पराधीनता , व्यक्तिगत हो अथवा राष्ट्रीय , उससे मनुष्य के चरित्र का पतन हो जाता है , गुणों का ह्लास होने लगता है और तरह - तरह के दोष उत्पन्न होने लगते हैं l ' कवियों ने पराधीनता को ऐसी ' पिशाचिनी ' की उपमा दी है जो मनुष्य के ज्ञान , मान , प्राण सबका अपहरण कर लेती है l
भगवान ने संसार में अनेक प्रकार के छोटे - बड़े , निर्बल - सबल , मूर्ख - चतुर प्राणी बनाये हैं l ईश्वरीय नियम तो यह है कि जो अपने से छोटा , कमजोर , नासमझ हो उसको आगे बढ़ने में , उन्नति करने में सहायता दी जाये , प्रगति के क्षेत्र में उसका मार्गदर्शन किया जाये , पर इसके विपरीत जो कमजोर को अपना भक्ष्य समझे हैं , छल - बल से उनके स्वत्व का अपहरण करना , उनकी कमजोरी का फायदा उठाकर उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करने को ही अपनी विशेषता समझते हैं , उन्हें कम से कम ' मानव ' पद का अधिकारी तो नहीं कह सकते l इनकी गणना तो उन क्रूर हिंसक पशुओं में ही की जा सकती है जिनका स्वभाव ही खूंखार बनाया गया है और जो सबके लिए भय का कारण होते हैं l
भगवान ने संसार में अनेक प्रकार के छोटे - बड़े , निर्बल - सबल , मूर्ख - चतुर प्राणी बनाये हैं l ईश्वरीय नियम तो यह है कि जो अपने से छोटा , कमजोर , नासमझ हो उसको आगे बढ़ने में , उन्नति करने में सहायता दी जाये , प्रगति के क्षेत्र में उसका मार्गदर्शन किया जाये , पर इसके विपरीत जो कमजोर को अपना भक्ष्य समझे हैं , छल - बल से उनके स्वत्व का अपहरण करना , उनकी कमजोरी का फायदा उठाकर उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करने को ही अपनी विशेषता समझते हैं , उन्हें कम से कम ' मानव ' पद का अधिकारी तो नहीं कह सकते l इनकी गणना तो उन क्रूर हिंसक पशुओं में ही की जा सकती है जिनका स्वभाव ही खूंखार बनाया गया है और जो सबके लिए भय का कारण होते हैं l
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