चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी से दक्षिण की यात्रा पर निकले l रास्ते में एक सरोवर के किनारे उन्होंने एक ब्राह्मण को गीता - पाठ करते देखा l वह गीता के पाठ में इतना तल्लीन था कि उसे अपने शरीर की सुध नहीं थी , उसका हृदय गद्गद हो रहा था और नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही थी l उसका पाठ समाप्त होने पर चैतन्य महाप्रभु ने पूछा --- " तुम श्लोकों का अशुद्ध उच्चारण कर रहे थे , तुम्हे इसका अर्थ मालूम न होगा , परन्तु तब भी तुम इतने भाव-विभोर कैसे थे ? " उसने उत्तर दिया ---- " भगवन ! मैं क्या जानूँ संस्कृत l मैं तो जब पढ़ने बैठता हूँ तो ऐसा लगता है कि कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों ओर बड़ी भारी सेनाएं सजी हुई खड़ी हैं l जहाँ बीच में एक रथ पर भगवान कृष्ण अर्जुन से कुछ कह रहे हैं l इस दृश्य को देखकर मन भाव से भर उठता है l " चैतन्य महाप्रभु ने कहा --- ' भैया तुमने ही गीता का सच्चा अर्थ जाना है l " यह कहकर उन्होंने उसे अपने गले से लगा लिया l
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