मनुष्य लोभ - लालच , ईर्ष्या - द्वेष और कामना - वासना जैसी मानवीय कमजोरियों में इस तरह फँसा हुआ है कि सामने ईश्वर भी हो , साक्षात् अवतार का साथ भी मिले तो भी वह उन्हें पहचान नहीं पाता l अपने बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ गँवा देता है l ---- हृदयराम मुखोपाध्याय , रामकृष्ण परमहंस के साथ पच्चीस वर्ष रहे l वे ठाकुर से मात्र चार वर्ष छोटे थे l बचपन में वे ठाकुर के साथ खेले भी थे , पर उनकी आध्यात्मिक विभूति पर उनका ध्यान कभी नहीं गया l कलकत्ता में उनके मामा परमहंस जी एक मंदिर के पुजारी बन गए , यह सुनकर वे भी कलकत्ता आ गए l समाधि की स्थिति में उनको सँभालने , उन्हें खाना बनाकर देने आदि सारी जिम्मेदारी उनने संभाल ली l स्वयं ठाकुर मानते थे कि हृदय ने उनकी खूब सेवा की l दक्षिणेश्वर एक प्रकार से ईश्वरत्व को प्राप्त करने वाले जिज्ञासुओं की स्थली बन गया l हृदयराम का व्यवहार धीरे - धीरे बदलता गया l शरीर उनका बड़ा ताकतवर था l खूब खाते थे , जिसकी कोई कमी न थी l दंड भी पेलते थे l वे रामकृष्ण से रुखा बोलने लगे , कभी - कभी हाथ भी चला देते l कभी वे उनकी नक़ल बनाते l उनका अहंकार बढ़ता चला गया l अपने व्यवहार के चलते मई 1881 में उन्हें दक्षिणेश्वर छोड़ना पड़ा l एक बार वे श्री रामकृष्ण से मिलने आए , पर उन्हें जाना पड़ा l बाद में हृदय ने कुलीगिरी की , स्वास्थ्य गिरता चला गया एवं 1899 में उनका निधन हो गया l उनका जीवन अभिशप्त ही रहा , जबकि उन्हें साक्षात् अवतार का साथ मिला l
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