दान तीन तरह के होते हैं-----1. अंशदान-अपनी धन-संपति का एक अंश देना, उसे पुण्य-प्रयोजन में लगाना अंशदान है |
2. समयदान- अपनी प्रतिभा एवं समय का पुण्य कार्य में नियोजन समयदान कहा जाता है ।
3. श्रमदान-अपनी सामर्थ्य एवं प्रतिभा के साथ शारीरिक श्रम का नियोजन ही श्रमदान माना जाता है
ईश्वर आराधना के साथ किसी श्रेष्ठ प्रयोजन के लिये किया गया श्रमदान का पुण्य बहुत है ।
केवल द्रव्यदान ही सब कुछ नहीं है , यदि किसी पुण्य प्रयोजन के लिये श्रमदान किया जाये तो यह बुरे कार्यों का प्रायश्चित है जो शरीर से अच्छे कर्म करने से ही होता है ।
आज धन उत्पीड़न और प्रदर्शन का कारण बना हुआ है, इसका कारण है--आसुरी प्रवृति । यदि सत्पुरुष और देववृति के लोग उद्दमी बने, संपदा कमाएं और नीति से कमाई गई अपनी संपदा को समाज को सुखी-समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने वाले क्रिया-कलाप में लगायें तो इसके सत्परिणाम आयेंगे और समाज में सुख-शांति और उन्नति का सतयुगी वातावरण निर्मित होगा ।
2. समयदान- अपनी प्रतिभा एवं समय का पुण्य कार्य में नियोजन समयदान कहा जाता है ।
3. श्रमदान-अपनी सामर्थ्य एवं प्रतिभा के साथ शारीरिक श्रम का नियोजन ही श्रमदान माना जाता है
ईश्वर आराधना के साथ किसी श्रेष्ठ प्रयोजन के लिये किया गया श्रमदान का पुण्य बहुत है ।
केवल द्रव्यदान ही सब कुछ नहीं है , यदि किसी पुण्य प्रयोजन के लिये श्रमदान किया जाये तो यह बुरे कार्यों का प्रायश्चित है जो शरीर से अच्छे कर्म करने से ही होता है ।
आज धन उत्पीड़न और प्रदर्शन का कारण बना हुआ है, इसका कारण है--आसुरी प्रवृति । यदि सत्पुरुष और देववृति के लोग उद्दमी बने, संपदा कमाएं और नीति से कमाई गई अपनी संपदा को समाज को सुखी-समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने वाले क्रिया-कलाप में लगायें तो इसके सत्परिणाम आयेंगे और समाज में सुख-शांति और उन्नति का सतयुगी वातावरण निर्मित होगा ।
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