' जीवन की सच्चाई बोध में है । जो जागता है, समझो, वही जीता है । जो जिज्ञासु हैं, जिनकी जिज्ञासा सच्ची है, वही जीवन बोध की राह पर चल पाते हैं । जिज्ञासा का अंकुर ही क्रमिक रूप से जीवन को जागरूक करता है ।
भगवान बुद्ध महावट की छाया में आसीन थे । कुछ उपासक धर्मश्रवण के लिये भगवान के पास आये और प्रार्थना की कि आप कुछ कहें, हम बड़ी दूर से आयें हैं । तथागत ने इस प्रार्थना को सुना और सुनकर मौन रहे । उन्होंने एक बार फिर से प्रार्थना की, भगवान इस बार भी मौन रहे । इससे उन्हें निराशा हुई ।
आगंतुकों ने पुन: तीन बार प्रार्थना की तो भगवान मुस्करा उठे और उन्होंने प्रवचन देना शुरू किया लेकिन आश्चर्य ! भगवान तो बोल रहे थे, किंतु आगंतुक जन सुन नहीं रहे थे । हालाँकि वे सुनने के लिये ही दूर से आये थे । उनमे से कोई बैठे-बैठे सोने लगा, कोई जम्हाई लेने लगा, कोई इधर-उधर देखने लगा । कई आपस में बातें करने लगे कि यह कैसा प्रवचन है, इसमें कोई हँसाने वाली, रोचक बातें नहीं हैं ।
आनंद ने यह दशा देखी तो बड़ी हैरानी हुई कि पहले तो इन लोगों ने तीन बार प्रार्थना की और अब जब भगवान बोल रहें हैं तो कोई सुन नहीं रहा है । आनंद ने कहा-- " भगवान, आप किनसे बोल रहें हैं, यहाँ तो कोई सुनने वाला है ही नहीं । "
भगवान हँसने लगे और बोले--- " मैं संभावनाओं से बोल रहा हूँ । मैं बीज से बोल रहा हूँ और मैं इसलिये भी बोल रहा हूँ कि मैं नहीं बोला, ऐसा दोष मेरे ऊपर न लगे । रही सुनने वालों की बात सो ये जाने । सुने या न सुने, इनकी मरजी । फिर जबरन किसी को कोई बात सुनाई भी कैसे जा सकती है ? "
भिक्षु आनंद का अंतस अभी भी अचरज से भरा था कि इतना सुंदर उपदेश, इतनी मधुर वाणी कोई सुन क्यों नहीं रहा है । आनंद की इस स्थिति पर बुद्ध मुस्कराए और कहने लगे--- " आनंद श्रवण सरल नहीं है । श्रवण बड़ी कला है । धर्मश्रवण के लिये राग-द्वेष-मोह, तृष्णा और पुरानी आदतों को छोड़ना पड़ता, फेंकना पड़ता है अन्यथा कहते हुए को सुना नहीं जाता, सुने हुए को समझा नहीं जाता और समझे हुए को गुना नहीं जाता ।
जो श्रवण सीख जाता है वह स्वत: ही मनन को उपलब्ध होता है और मनन करने वाला अपने आप ही ध्यान में डूब जाता है । जो ध्यान में डूब गया है, समझो कि समाधि अब उससे दूर नहीं । "
भगवान बुद्ध महावट की छाया में आसीन थे । कुछ उपासक धर्मश्रवण के लिये भगवान के पास आये और प्रार्थना की कि आप कुछ कहें, हम बड़ी दूर से आयें हैं । तथागत ने इस प्रार्थना को सुना और सुनकर मौन रहे । उन्होंने एक बार फिर से प्रार्थना की, भगवान इस बार भी मौन रहे । इससे उन्हें निराशा हुई ।
आगंतुकों ने पुन: तीन बार प्रार्थना की तो भगवान मुस्करा उठे और उन्होंने प्रवचन देना शुरू किया लेकिन आश्चर्य ! भगवान तो बोल रहे थे, किंतु आगंतुक जन सुन नहीं रहे थे । हालाँकि वे सुनने के लिये ही दूर से आये थे । उनमे से कोई बैठे-बैठे सोने लगा, कोई जम्हाई लेने लगा, कोई इधर-उधर देखने लगा । कई आपस में बातें करने लगे कि यह कैसा प्रवचन है, इसमें कोई हँसाने वाली, रोचक बातें नहीं हैं ।
आनंद ने यह दशा देखी तो बड़ी हैरानी हुई कि पहले तो इन लोगों ने तीन बार प्रार्थना की और अब जब भगवान बोल रहें हैं तो कोई सुन नहीं रहा है । आनंद ने कहा-- " भगवान, आप किनसे बोल रहें हैं, यहाँ तो कोई सुनने वाला है ही नहीं । "
भगवान हँसने लगे और बोले--- " मैं संभावनाओं से बोल रहा हूँ । मैं बीज से बोल रहा हूँ और मैं इसलिये भी बोल रहा हूँ कि मैं नहीं बोला, ऐसा दोष मेरे ऊपर न लगे । रही सुनने वालों की बात सो ये जाने । सुने या न सुने, इनकी मरजी । फिर जबरन किसी को कोई बात सुनाई भी कैसे जा सकती है ? "
भिक्षु आनंद का अंतस अभी भी अचरज से भरा था कि इतना सुंदर उपदेश, इतनी मधुर वाणी कोई सुन क्यों नहीं रहा है । आनंद की इस स्थिति पर बुद्ध मुस्कराए और कहने लगे--- " आनंद श्रवण सरल नहीं है । श्रवण बड़ी कला है । धर्मश्रवण के लिये राग-द्वेष-मोह, तृष्णा और पुरानी आदतों को छोड़ना पड़ता, फेंकना पड़ता है अन्यथा कहते हुए को सुना नहीं जाता, सुने हुए को समझा नहीं जाता और समझे हुए को गुना नहीं जाता ।
जो श्रवण सीख जाता है वह स्वत: ही मनन को उपलब्ध होता है और मनन करने वाला अपने आप ही ध्यान में डूब जाता है । जो ध्यान में डूब गया है, समझो कि समाधि अब उससे दूर नहीं । "
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