बंगला भाषा के प्रख्यात साहित्यकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की कृतियों में जो सजीव प्राण हैं वह प्राण उनके व्यक्तित्व और हृदय से प्रसूत हुए हैं । नारी जीवन की कुंठाओं और समस्याओं का शरत बाबू ने अपनी कृतियों में सफल चित्रण किया है । अपने साहित्य में नारी जीवन का मार्मिक चित्रण करने वाला कलम का धनी ह्रदय का भी धनी था ।
उनका पड़ोसी रुपयों के लालच में अपनी पुत्री शांति का विवाह एक बूढ़े से कर रहा था, शरत बाबू ने उसे इस रिश्ते को तोड़ने को कहा तो उसने कहा--- " यदि आप को मेरी पुत्री से इतनी सहानुभूति है तो आप ही क्यों न उसका हाथ लेते हैं । " उन्होंने बहुत सोच-विचार किया और फिर शांति को अपनी जीवन संगिनी के रूप में स्वीकार किया ।
शरतचंद्र कलकत्ता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे । उन दिनों ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था-- अंग्रेज प्राध्यापकों का वेतन भारतीय प्राध्यापकों से अधिक होता था । उन्होंने विरोध करने की नयी नीति अपनाई । वे विद्दालय जाते तो नियमित थे किन्तु वेतन लेना बंद कर दिया इससे आर्थिक स्थिति बिगड़ गई । उन्हें गंगा पार करके यूनिवर्सिटी जाना पड़ता था । उनकी पत्नी ने मंगलसूत्र बेच दिया और एक छोटी सी नाव खरीद ली और वह स्वयं ही उन्हें नियमित रुप से पहुँचाने और लेने जाने लगी । अंग्रेज हुकूमत को इसका पता चला तो वह शर्म से झुक गई और तब से भारतीय प्राध्यापकों का वेतन भी अंग्रेजों के समान कर दिया गया ।
उनका पड़ोसी रुपयों के लालच में अपनी पुत्री शांति का विवाह एक बूढ़े से कर रहा था, शरत बाबू ने उसे इस रिश्ते को तोड़ने को कहा तो उसने कहा--- " यदि आप को मेरी पुत्री से इतनी सहानुभूति है तो आप ही क्यों न उसका हाथ लेते हैं । " उन्होंने बहुत सोच-विचार किया और फिर शांति को अपनी जीवन संगिनी के रूप में स्वीकार किया ।
शरतचंद्र कलकत्ता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे । उन दिनों ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था-- अंग्रेज प्राध्यापकों का वेतन भारतीय प्राध्यापकों से अधिक होता था । उन्होंने विरोध करने की नयी नीति अपनाई । वे विद्दालय जाते तो नियमित थे किन्तु वेतन लेना बंद कर दिया इससे आर्थिक स्थिति बिगड़ गई । उन्हें गंगा पार करके यूनिवर्सिटी जाना पड़ता था । उनकी पत्नी ने मंगलसूत्र बेच दिया और एक छोटी सी नाव खरीद ली और वह स्वयं ही उन्हें नियमित रुप से पहुँचाने और लेने जाने लगी । अंग्रेज हुकूमत को इसका पता चला तो वह शर्म से झुक गई और तब से भारतीय प्राध्यापकों का वेतन भी अंग्रेजों के समान कर दिया गया ।
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