' सच्ची लगन और एकनिष्ठ पुरुषार्थी के लिए संसार में कुछ भी असाध्य नही होता । ' संगीत के महान साधक श्री कृष्णचन्द्र डे ने जिन बाधाओं को जीतकर सफलता तथा लोकप्रियता प्राप्त की वह सामान्य नहीं कही जा सकतीं ।
श्री डे जब केवल डेढ़ वर्ष के थे उनके पिता का देहांत हो गया , घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी । माँ ने उनका पालन किया । पूजा के समय अपने पास बैठाकर प्रेरक कथाएं सुनाती और जीवन की कठिनाइयों के बीच साहस , धैर्य और परिश्रम का महत्व समझातीं ।
श्री के. सी. डे अभी बारह वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनकी आँखें जाती रहीं , दैव के इस निर्मम आघात से माता विचलित हो गईं किन्तु बालक कृष्णचन्द्र ने साहस नहीं छोड़ा, वह माता को धीरज बँधाता और कहता--- " माँ तू दुःखी क्यों होती है । संसार में एक मैं ही तो अँधा नहीं हूँ, न जाने कितने लोग नेत्रों से विवश हैं । कृष्ण के महान भक्त सूरदास तो जन्मांध थे, फिर भी उन्होंने हजारों भजन और भक्तिपूर्ण पद लिखकर उन्हें संगीत में बाँधकर संसार में अमरत्व प्राप्त कर लिया । माँ, तू मुझे संगीत सीखने का प्रबंध कर दे, मैं जीवन में एक ऊँचा संगीतज्ञ बनकर रहना चाहता हूँ।"
शशिभूषण नाम के संगीतज्ञ से उन्होंने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की फिर आगे की संगीत साधना उन्होंने कलकत्ता के श्री करमतुल्ला के निर्देशन मे की ।
किशोरावस्था में जब श्री कृष्णचन्द्र राधारमणदास के साथ कीर्तन किया करते थे तब उपस्थित जनता उनकी तन्मयता के साथ भाव-विभोर हो जाती थी । सुनने वाले कहते थे कि जब स्वर सहसा रुक जाता था तो ऐसा लगता था कि हम सब यहाँ नहीं थे किसी आनंद लोक से अभी-अभी उतरे हैं ।
उन्होंने लगभग 25-26 वर्ष तक संगीत की एकनिष्ठ साधना की । कलकत्ता के नादयोगी श्री वेणीबाबू के शिष्यत्व में उन्होंने संगीत के प्रति आध्यात्मिक द्रष्टिकोण बना लिया ।
संगीत साधना ने उनकी ह्रदय की आँखें खोल दीं । उन्होंने 'देवदासी ' और 'विश्वप्रिया ' जैसे नाटकों का संचालन व प्रदर्शन किया । उन्होने ' रंगमंच ' नामक थियेटर की स्थापना की और ' एकतारा ' नामक संगीत संस्था की स्थापना करके न जाने उच्च कोटि के गायक-गायिकाओं क निर्माण किया । उन्होंने अनेक सफल फिल्मों का संचालन व निर्देशन किया । फिल्म जगत में उन्होंने लगभग पांच हजार गीत गाये होंगे जिनका हिन्दी से बंगला, गुजराती आदि कई भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है ।
उन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर संगीत साधना की, कभी किसी व्यसन के शिकार नहीं हुए । फिल्मी दुनिया में रहते हुए भी एक संत की तरह रहकर अपने जीवन लक्ष्य में लगे रहे ।
' बाबा, मन की आँखें खोल ' जैसे प्रसिद्ध गीतों से घर-घर और हाट-बाट को गुंजा देने वाले महान संगीत साधक अंत में अपनी सारी धनराशि ' रंगमंच ' और ' एकतारा ' संस्थाओं को संगीत नाटक कला के विकास के लिए देकर जनता की भावनाओं में अमर हो गये ।
श्री डे जब केवल डेढ़ वर्ष के थे उनके पिता का देहांत हो गया , घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी । माँ ने उनका पालन किया । पूजा के समय अपने पास बैठाकर प्रेरक कथाएं सुनाती और जीवन की कठिनाइयों के बीच साहस , धैर्य और परिश्रम का महत्व समझातीं ।
श्री के. सी. डे अभी बारह वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनकी आँखें जाती रहीं , दैव के इस निर्मम आघात से माता विचलित हो गईं किन्तु बालक कृष्णचन्द्र ने साहस नहीं छोड़ा, वह माता को धीरज बँधाता और कहता--- " माँ तू दुःखी क्यों होती है । संसार में एक मैं ही तो अँधा नहीं हूँ, न जाने कितने लोग नेत्रों से विवश हैं । कृष्ण के महान भक्त सूरदास तो जन्मांध थे, फिर भी उन्होंने हजारों भजन और भक्तिपूर्ण पद लिखकर उन्हें संगीत में बाँधकर संसार में अमरत्व प्राप्त कर लिया । माँ, तू मुझे संगीत सीखने का प्रबंध कर दे, मैं जीवन में एक ऊँचा संगीतज्ञ बनकर रहना चाहता हूँ।"
शशिभूषण नाम के संगीतज्ञ से उन्होंने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की फिर आगे की संगीत साधना उन्होंने कलकत्ता के श्री करमतुल्ला के निर्देशन मे की ।
किशोरावस्था में जब श्री कृष्णचन्द्र राधारमणदास के साथ कीर्तन किया करते थे तब उपस्थित जनता उनकी तन्मयता के साथ भाव-विभोर हो जाती थी । सुनने वाले कहते थे कि जब स्वर सहसा रुक जाता था तो ऐसा लगता था कि हम सब यहाँ नहीं थे किसी आनंद लोक से अभी-अभी उतरे हैं ।
उन्होंने लगभग 25-26 वर्ष तक संगीत की एकनिष्ठ साधना की । कलकत्ता के नादयोगी श्री वेणीबाबू के शिष्यत्व में उन्होंने संगीत के प्रति आध्यात्मिक द्रष्टिकोण बना लिया ।
संगीत साधना ने उनकी ह्रदय की आँखें खोल दीं । उन्होंने 'देवदासी ' और 'विश्वप्रिया ' जैसे नाटकों का संचालन व प्रदर्शन किया । उन्होने ' रंगमंच ' नामक थियेटर की स्थापना की और ' एकतारा ' नामक संगीत संस्था की स्थापना करके न जाने उच्च कोटि के गायक-गायिकाओं क निर्माण किया । उन्होंने अनेक सफल फिल्मों का संचालन व निर्देशन किया । फिल्म जगत में उन्होंने लगभग पांच हजार गीत गाये होंगे जिनका हिन्दी से बंगला, गुजराती आदि कई भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है ।
उन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर संगीत साधना की, कभी किसी व्यसन के शिकार नहीं हुए । फिल्मी दुनिया में रहते हुए भी एक संत की तरह रहकर अपने जीवन लक्ष्य में लगे रहे ।
' बाबा, मन की आँखें खोल ' जैसे प्रसिद्ध गीतों से घर-घर और हाट-बाट को गुंजा देने वाले महान संगीत साधक अंत में अपनी सारी धनराशि ' रंगमंच ' और ' एकतारा ' संस्थाओं को संगीत नाटक कला के विकास के लिए देकर जनता की भावनाओं में अमर हो गये ।
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