इंग्लैंड से प्रकाशित ' ग्लासेस्टर ' के प्रकाशक और संपादक एक गंदी बस्ती से निकलकर जा रहे थे । वहां कुछ बच्चे खेल रहे थे, रेक्स जैसे ही उनके पास से गुजरे कि एक लड़के ने कीचड़ उछाल कर उनके ऊपर फेंका और सब लड़के खिलखिलाकर हँस पड़े । रेक्स लड़कों पर बहुत नाराज हुए । उधर से एक स्त्री आ रही थी, उसे देखकर रेक्स गरजकर बोले--- ये तुम लोगों के लड़के हैं, कैसे फूहड़ हैं, इनके माता-पिता इन्हें सभ्यता और शिष्टाचार भी नहीं सिखाते ।
उस महिला ने विनम्र उत्तर दिया--- शिष्टाचार ! यह तो शिक्षितों और सम्पतिवानो के भाग्य की बात है, इनके माता-पिता निर्धन हैं, मजदूरी करते हैं```, उनके पास समय होता तो इन बच्चों के पास बैठते, अच्छी बात सिखाते । ये बच्चे भी फैक्टरी में दस घंटे काम करते हैं, इनके पास खेलने के साधन नहीं हैं । क्या शिक्षित और संपन्न समाज इसके लिये दोषी नहीं है ?
रेक्स वहां से चले आये, उस महिला की बातों ने उनके ह्रदय को झकझोर दिया, वे कई राते सो न सके । रेक्स के अंतर्मन में उठी पीड़ा ' रेक्स स्कूलों ' के रूप मे प्रकट हुई । वे प्रति रविवार को उस बस्ती में जाकर एक स्कूल चलाकर बच्चों को अक्षर ज्ञान, नीति और सदाचार के पाठ पढ़ाने लगे ।
बच्चों को मीठा बोलना, परस्पर अभिवादन, माता-पिता की आज्ञा मानना, बेकार समय का उपयोग पढ़ने में लगाना, चोरी न करना इस तरह की शिक्षाएं वह कथा-कहानियों और उपदेशों के माध्यम से देने लगे । प्रारंभ में थोड़े बच्चे आये, जब औरों ने उन्हें साफ-सुथरा, आकर्षक देखा तो अन्य अभिभावक भी अपने बच्चे भेजने लगे । बच्चों का सुधार देख बड़े भी सुधरने लगे और कुछ ही दिनों में उस बस्ती में अपराधों की संख्या घटकर शून्य हो गई ।
धर्माचार्यों, पादरियों ने इसका विरोध किया और कहा---- " सन्डे का दिन भगवान के लिये है न कि मनुष्यों के लिये । " रेक्स का कहना था कि भगवान के तो सभी दिन हैं, पर इन अशिक्षितों की सुविधा का तो एक ही दिन है शेष सप्ताह उन्हें आजीविका के लिये व्यस्त रहना पड़ता है ।
1780 में यह घटना घटित हुई और इसके पांच वर्षों इंग्लैंड में 50 स्कूल खुल गये, इण्डिन वर्ग में 34 स्कूल चलने लगे, इनमे पढने वाले छात्रों की संख्या 250000 तक पहुँच गई । अनेक समाज-सेवियों को काम करने और पुण्य अर्जित करने का अवसर मिला । आज भी विश्व के अधिकांश देशों में रविवासरीय स्कूल चलते हैं ।
उस महिला ने विनम्र उत्तर दिया--- शिष्टाचार ! यह तो शिक्षितों और सम्पतिवानो के भाग्य की बात है, इनके माता-पिता निर्धन हैं, मजदूरी करते हैं```, उनके पास समय होता तो इन बच्चों के पास बैठते, अच्छी बात सिखाते । ये बच्चे भी फैक्टरी में दस घंटे काम करते हैं, इनके पास खेलने के साधन नहीं हैं । क्या शिक्षित और संपन्न समाज इसके लिये दोषी नहीं है ?
रेक्स वहां से चले आये, उस महिला की बातों ने उनके ह्रदय को झकझोर दिया, वे कई राते सो न सके । रेक्स के अंतर्मन में उठी पीड़ा ' रेक्स स्कूलों ' के रूप मे प्रकट हुई । वे प्रति रविवार को उस बस्ती में जाकर एक स्कूल चलाकर बच्चों को अक्षर ज्ञान, नीति और सदाचार के पाठ पढ़ाने लगे ।
बच्चों को मीठा बोलना, परस्पर अभिवादन, माता-पिता की आज्ञा मानना, बेकार समय का उपयोग पढ़ने में लगाना, चोरी न करना इस तरह की शिक्षाएं वह कथा-कहानियों और उपदेशों के माध्यम से देने लगे । प्रारंभ में थोड़े बच्चे आये, जब औरों ने उन्हें साफ-सुथरा, आकर्षक देखा तो अन्य अभिभावक भी अपने बच्चे भेजने लगे । बच्चों का सुधार देख बड़े भी सुधरने लगे और कुछ ही दिनों में उस बस्ती में अपराधों की संख्या घटकर शून्य हो गई ।
धर्माचार्यों, पादरियों ने इसका विरोध किया और कहा---- " सन्डे का दिन भगवान के लिये है न कि मनुष्यों के लिये । " रेक्स का कहना था कि भगवान के तो सभी दिन हैं, पर इन अशिक्षितों की सुविधा का तो एक ही दिन है शेष सप्ताह उन्हें आजीविका के लिये व्यस्त रहना पड़ता है ।
1780 में यह घटना घटित हुई और इसके पांच वर्षों इंग्लैंड में 50 स्कूल खुल गये, इण्डिन वर्ग में 34 स्कूल चलने लगे, इनमे पढने वाले छात्रों की संख्या 250000 तक पहुँच गई । अनेक समाज-सेवियों को काम करने और पुण्य अर्जित करने का अवसर मिला । आज भी विश्व के अधिकांश देशों में रविवासरीय स्कूल चलते हैं ।
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