' प्रेस के एक सामान्य कर्मचारी से प्रगति करते हुए प्रसिद्ध पत्रकार , प्रकाशक , हिन्दी -सेवी , राष्ट्र -सेवी और नगर के सम्मानित नागरिक बन जाने वाले महेंद्रजी ने अपने व्यक्तित्व के पात्र को कभी छोटा नहीं पड़ने दिया । धन , सम्पदा , यश , मान सब कुछ आया पर वह सब अपने और अपने परिवार के पालन -पोषण और उसकी वृद्धि तक ही सीमित नहीं रहा वह दूसरों को आगे बढ़ाने , राष्ट्र व समाज का हित करने में भी नियोजित हुआ । '
अपने पुरुषार्थ के बल पर एक-एक कदम आगे बढ़ते हुए वह शहर की तंग गलियों के जीर्ण-शीर्ण घर से चलकर सिविल लाइन्स के सुन्दर से आवास में प्रतिष्ठित हुए, यह मानवीय महत्वाकांक्षाओं और कर्मयोग का प्रेरक उदाहरण है । अपने जीवन को सफल बना लेने की बात उत्तम है पर सराहनीय तो अपने साथ-साथ दूसरों को आगे बढ़ाना है और इसे अपना काम समझकर करना महेन्द्रजी की विशेषता है । महेन्द्रजी का व्यक्तित्व ऐसा वट-विटप था जिसकी छांह मे अनेकों क्लांत पथिकों ने विश्राम लिया ।
व्यक्ति को परखने और आगे बढ़ाने की उनमे अनुपम क्षमता थी । जो उनके संपर्क में आया और उन्हें लगा कि वह बहुत कुछ बन सकता है तो उस सम्भाव्य को पूरा करने में वे कभी पीछे नहीं रहते थे । कई व्यक्ति उन्हें अपना निर्माता मानते हैं । भाषा, साहित्य, संस्कृति और राष्ट्र इन चारों की सेवा करके वे स्वयं ही धन्य नहीं हुए वरन उन्होंने कितने ही लोगों को इन पुण्य कार्यों में लगाया भी था । कई व्याक्तियों से आरम्भ में पेपर पर पते लिखवाने, बोलकर चिट्ठियां लिखवाने, प्रूफ पढ़वाने और लेख छटवांने का काम लेते हुए उन्होंने अपने पत्र साहित्य-सन्देश के संपादक तक पहुंचाये थे । वे आगरा की नागरी-प्रचारिणी- सभा के निर्माता थे । आगरा से प्रकाशित होने वाले 'दैनिक हिंदुस्तान समाचार ' , सैनिक-सिंहनाद, आगरा-पंच और साहित्य-सन्देश आदि पत्रों का प्रकाशन, संपादन उन्ही ने किया । साहित्य-प्रेस, साहित्य रत्न भंडार, साहित्य कुंज आदि के संस्थापक, संचालक और आगरा मंडल के स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्हें जाना गया । वे ' सैनिक ' के दैनिक व साप्ताहिक संस्करणों के संपादक भी रहे और सचमुच के सैनिक बनकर स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया । वे अपने पास आने वाले सैकड़ों समाचार पत्रों को नागरी-प्रचारिणी सभा के वाचनालय में पाठकों को पढ़ने के लिए भेज देते थे | उनका पुस्तक विक्रय केंद्र ' साहित्य रत्न भंडार ' साहित्यकारों की मिलन स्थली बन गया था , उन्होंने ऐसी व्यवस्था बना रखी थी कि साहित्यकारों को नयी पुस्तकें यों ही पढ़ने को मिल जाती थीं । महेन्द्रजी उन विरले व्यक्तियों में से थे जो अपने काम के साथ-साथ समाज और राष्ट्र की सेवा को भी लेकर चले ।
अपने पुरुषार्थ के बल पर एक-एक कदम आगे बढ़ते हुए वह शहर की तंग गलियों के जीर्ण-शीर्ण घर से चलकर सिविल लाइन्स के सुन्दर से आवास में प्रतिष्ठित हुए, यह मानवीय महत्वाकांक्षाओं और कर्मयोग का प्रेरक उदाहरण है । अपने जीवन को सफल बना लेने की बात उत्तम है पर सराहनीय तो अपने साथ-साथ दूसरों को आगे बढ़ाना है और इसे अपना काम समझकर करना महेन्द्रजी की विशेषता है । महेन्द्रजी का व्यक्तित्व ऐसा वट-विटप था जिसकी छांह मे अनेकों क्लांत पथिकों ने विश्राम लिया ।
व्यक्ति को परखने और आगे बढ़ाने की उनमे अनुपम क्षमता थी । जो उनके संपर्क में आया और उन्हें लगा कि वह बहुत कुछ बन सकता है तो उस सम्भाव्य को पूरा करने में वे कभी पीछे नहीं रहते थे । कई व्यक्ति उन्हें अपना निर्माता मानते हैं । भाषा, साहित्य, संस्कृति और राष्ट्र इन चारों की सेवा करके वे स्वयं ही धन्य नहीं हुए वरन उन्होंने कितने ही लोगों को इन पुण्य कार्यों में लगाया भी था । कई व्याक्तियों से आरम्भ में पेपर पर पते लिखवाने, बोलकर चिट्ठियां लिखवाने, प्रूफ पढ़वाने और लेख छटवांने का काम लेते हुए उन्होंने अपने पत्र साहित्य-सन्देश के संपादक तक पहुंचाये थे । वे आगरा की नागरी-प्रचारिणी- सभा के निर्माता थे । आगरा से प्रकाशित होने वाले 'दैनिक हिंदुस्तान समाचार ' , सैनिक-सिंहनाद, आगरा-पंच और साहित्य-सन्देश आदि पत्रों का प्रकाशन, संपादन उन्ही ने किया । साहित्य-प्रेस, साहित्य रत्न भंडार, साहित्य कुंज आदि के संस्थापक, संचालक और आगरा मंडल के स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्हें जाना गया । वे ' सैनिक ' के दैनिक व साप्ताहिक संस्करणों के संपादक भी रहे और सचमुच के सैनिक बनकर स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया । वे अपने पास आने वाले सैकड़ों समाचार पत्रों को नागरी-प्रचारिणी सभा के वाचनालय में पाठकों को पढ़ने के लिए भेज देते थे | उनका पुस्तक विक्रय केंद्र ' साहित्य रत्न भंडार ' साहित्यकारों की मिलन स्थली बन गया था , उन्होंने ऐसी व्यवस्था बना रखी थी कि साहित्यकारों को नयी पुस्तकें यों ही पढ़ने को मिल जाती थीं । महेन्द्रजी उन विरले व्यक्तियों में से थे जो अपने काम के साथ-साथ समाज और राष्ट्र की सेवा को भी लेकर चले ।
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