फ्रेडरिक ईडन पार्जिटर भारत आए तो ब्रिटिश राज्य के उच्च पदाधिकारी बन कर किन्तु यहां आकर वे संस्कृत भाषा और हिन्दू धर्म ग्रंथों के परम भक्त बन गये । भारत आने और यहां की आध्यात्मिक ज्ञान संपदा से परिचित होने के बाद वे इस तथ्य को जान गये थे कि एक व्यक्ति के जीवन में उच्च पदों का उतना महत्व नहीं है जितना उच्च कार्यों का । उन्होंने प्राच्य विद्दा और शिला लेखों के संशोधन का महत्वपूर्ण कार्य संपादित किया । वे अपने जिस कार्य के कारण आज भी याद किये जाते हैं , वह है उनके द्वारा किया गया पुराणो का भावान्तर ।
भारत आने के बाद उन्होंने संस्कृत सीखी और मार्कण्डेय -पुराण का अंग्रेजी में अनुवाद करने का काम अपने हाथ में लिया । इस अनुवाद के साथ उनकी जोड़ी हुई टिप्पणियाँ अत्यंत बोध-गम्य और मूल्यवान हैं । उनकी प्रस्तावना को संशोधन के क्षेत्र में अद्धितीय माना जाता है |
उनका मस्तिष्क किसी प्रकार के आग्रह से ग्रस्त नहीं था । सही बात को स्वीकार करने में उन्होंने कभी आनाकानी नहीं की । मार्कण्डेय -पुराण के ' चण्डी ' नामक भाग के संबंध उनका अनुमान था कि यह बारहवीं सदी में लिखा गया है किन्तु जब एक भारतीय पंडित ने उन्हें बाणभट्ट का सातवीं सदी में रचे ' चण्डी शतक ' की एक प्रामाणिक पोथी दिखाई तो उन्होंने अपने काल निर्णय में तुरंत संशोधन कर लिया । वे पहले मानव थे जिन्होंने भाषान्तर के मामले में पूर्ण निष्पक्षता का परिचय दिया । अपने ग्रंथ ' डाइनेस्टीज ऑफ़ द कलि एज ' में उन्होंने पुराणो के संस्कृत -उद्धरण संकलित करके उनका रोमन लिप्यंतर भी दिया है । अपने ग्रन्थ ' एशेंट इंडियन हिस्टॉरिकल ट्रेडीशन ' में उन्होंने पुराणो के ऐतिहासिक विवरणों की सच्चाई को प्रतिपादित किया है ।
धर्मों और जातियों के मध्य जो सहिष्णुता होनी चाहिए इसके वे अनूठे उदाहरण हैं । 1894 से 1920 के मध्य उन्होंने तीस से भी अधिक शोध निबंध लिखे , इनमे उन्होंने भारतीय ज्ञान संपदा का अच्छा खासा परिचय दिया है ।
भारतवासी और प्राच्य विद्दा के अनुरागी उनके चिर ऋणी हैं । विद्व्ता के सदुपयोग का जो आदर्श उन्होने प्रस्तुत किया वह स्तुत्य है , अनुकरणीय है ।
भारत आने के बाद उन्होंने संस्कृत सीखी और मार्कण्डेय -पुराण का अंग्रेजी में अनुवाद करने का काम अपने हाथ में लिया । इस अनुवाद के साथ उनकी जोड़ी हुई टिप्पणियाँ अत्यंत बोध-गम्य और मूल्यवान हैं । उनकी प्रस्तावना को संशोधन के क्षेत्र में अद्धितीय माना जाता है |
उनका मस्तिष्क किसी प्रकार के आग्रह से ग्रस्त नहीं था । सही बात को स्वीकार करने में उन्होंने कभी आनाकानी नहीं की । मार्कण्डेय -पुराण के ' चण्डी ' नामक भाग के संबंध उनका अनुमान था कि यह बारहवीं सदी में लिखा गया है किन्तु जब एक भारतीय पंडित ने उन्हें बाणभट्ट का सातवीं सदी में रचे ' चण्डी शतक ' की एक प्रामाणिक पोथी दिखाई तो उन्होंने अपने काल निर्णय में तुरंत संशोधन कर लिया । वे पहले मानव थे जिन्होंने भाषान्तर के मामले में पूर्ण निष्पक्षता का परिचय दिया । अपने ग्रंथ ' डाइनेस्टीज ऑफ़ द कलि एज ' में उन्होंने पुराणो के संस्कृत -उद्धरण संकलित करके उनका रोमन लिप्यंतर भी दिया है । अपने ग्रन्थ ' एशेंट इंडियन हिस्टॉरिकल ट्रेडीशन ' में उन्होंने पुराणो के ऐतिहासिक विवरणों की सच्चाई को प्रतिपादित किया है ।
धर्मों और जातियों के मध्य जो सहिष्णुता होनी चाहिए इसके वे अनूठे उदाहरण हैं । 1894 से 1920 के मध्य उन्होंने तीस से भी अधिक शोध निबंध लिखे , इनमे उन्होंने भारतीय ज्ञान संपदा का अच्छा खासा परिचय दिया है ।
भारतवासी और प्राच्य विद्दा के अनुरागी उनके चिर ऋणी हैं । विद्व्ता के सदुपयोग का जो आदर्श उन्होने प्रस्तुत किया वह स्तुत्य है , अनुकरणीय है ।
No comments:
Post a Comment