श्रीमद भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने कर्तव्य कर्म को ही श्रेष्ठतम कहा है l पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- ' प्रकृति हमारे लिए जिस कर्तव्य का चयन करती है , उसका विरोध करना व्यर्थ है l हमारी उन्नति का एकमात्र उपाय यह है कि हम पहले वह कर्तव्य करें , जो काल द्वारा हमारे सम्मुख प्रस्तुत कर दिया गया है l यदि कोई मनुष्य छोटा कार्य करे , तो उसके कारण वह छोटा नहीं कहा जा सकता l कर्तव्य के मात्र बाहरी रूप से ही मनुष्य की उच्चता - नीचता का निर्णय ठीक नहीं है , देखना यह होगा कि वह अपना कर्तव्य किस भाव से करता है l शास्त्र में एक कथा आती है ------- एक संत ने अनेक वर्षों तक तप कर सिद्धि प्राप्त की , अपने ज्ञान का , तप का उन्हें बड़ा अहंकार हो गया l तब आकाशवाणी हुई कि तुम ज्यादा ज्ञानी और ईश्वर का भक्त वह व्याध है l संत को बड़ा आश्चर्य हुआ कि मांस काटने - बेचने वाला ज्ञानी कैसे हो सकता है l संत उससे मिलने पहुंचे , वह मांस बेच रहा था उसने कहा ---- थोड़ी देर प्रतीक्षा करो , मैं काम समाप्त कर आता हूँ l संत ने देखा कि उसका ग्राहकों से बहुत मधुर व्यवहार है , नाप - तौल में ईमानदारी है l काम समाप्त कर वह संत के साथ घर आया और उन्हें बैठाकर वह अंदर गया , अपने वृद्ध माता - पिता को स्नान कराया , भोजन कराया फिर उस संत के पास आया l संत ने उससे आत्मा - परमात्मा के प्रश्न पूछे , उसने सभी का उत्तर व उपदेश दिया l तब संत ने कहा ---- ' इतना ज्ञानी होते हुए तुम इतना घृणित व कुत्सित कार्य क्यों करते हो ? व्याध ने कहा ----- " कोई भी कार्य निन्दित अथवा अपवित्र नहीं है l मैं जन्म से ही इस परिस्थिति में हूँ , यही मेरा प्रारब्धजन्य कर्म है , कर्तव्य होने के नाते मैं इसे ईमानदारी व सच्चाई से करता हूँ , मेरा कर्तव्य ही पूजा है , उपासना है l गृहस्थ होने के नाते मैं परिवार के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करता हूँ , माता - पिता की सेवा करता हूँ l मैं कोई संन्यासी नहीं हूँ लेकिन अनासक्त भाव से कर्म करता हूँ l यह सब देख - सुन कर संत को समझ में आया कि कर्मफल में आसक्ति रखे बिना यदि कर्तव्य उचित रूप से किया जाये तो उससे भगवान की कृपा , उनका संरक्षण प्राप्त होता है l
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