विश्व के सर्वोच्च वैज्ञानिक आइंस्टीन को प्रयोगशाला से संन्यास लेकर एक छोटे से विद्यालय में देखकर जापानी वैज्ञानिकों के प्रतिनिधि मंडल ने जानना चाहा कि यह उनकी प्रतिभा का दुरूपयोग तो नहीं ? तब आइन्स्टीन ने प्रतिभा की यथार्थता को समझाते हुए कहा ----- " प्रतिभावान वह नहीं जिसने कोई बड़ा पद हथिया लिया हो , जिसकी शारीरिक और बौद्धिक क्षमताएं बढ़ी - चढ़ी हों l इसके साथ एक शर्त यह भी जुड़ी है कि उसकी दिशा क्या है l दिशा विहीनता की स्थिति में व्यक्ति क्षमतावान तो हो सकता है , किन्तु प्रतिभावान नहीं l अंतर उतना ही है जितना वेग और गति में , एक दिशाहीन है दूसरा दिशायुक्त है l उन्होंने भौतिक विज्ञान की भाषा में समझाया l सामर्थ्य दोनों में है , क्रियाशील भी दोनों हैं पर एक को अपने गंतव्य का कोई पता - ठिकाना नहीं , और दूसरा प्रतिपल गंतव्य की और बढ़ रहा है l प्रतिभा वह क्षमता है जिसकी दिशा सृजन की ओर हो l जिसके हर बढ़ते कदम का स्वागत मानवीय मुस्कान करे l सुख - सुविधा के साधन हमारी प्रथम आवश्यकता नहीं हैं , हमारी प्राथमिकता है इस बात की जानकारी कि जीवन कैसे जिया जाये , समूची जिंदगी अनेकों सद्गुणों की सुरभि बिखेरने वाला गुलदस्ता बनें l "
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