इतिहास में पढ़ते हैं कि जब भारत ज्ञान और वैभव में अपने चरम शिखर पर था , तब यूरोप में असभ्य जातियों का निवास था l इसके बाद उन अनेक देशों ने जिन्हे हम विकसित कहते हैं भौतिक प्रगति तो बहुत की , किन्तु अध्यात्म में रूचि न होने के कारण उनका यह विकास एकांगी रहा l मनुष्य के भीतर देवता और असुर दोनों होते हैं l अध्यात्म का अर्थ है --- व्यक्तित्व का परिष्कार , चिंतन और चेतना का परिष्कार l यह अध्यात्म ही है जो मनुष्य के भीतर के असुर को मार कर उसके देवत्व को जगाता है l विकसित कहे जाने वाले देशों ने विज्ञान के साथ अध्यात्म को नहीं जोड़ा , इसलिए उनके भीतर की असुरता समाप्त नहीं हुई और ज्ञान और बुद्धि के दुरूपयोग से यह असुरता एक विशालकाय असुर में तब्दील हो गई l कहावत है -' हाथ कंगन को आरसी क्या ' वे स्वयं ही संसार को अपनी असुरता का सबूत दे रहे हैं l असुरता में स्वयं ही उसके विनाश के बीज विद्यमान हैं l उन्हें तो अंधकार ही पसंद है l इसलिए प्रकृति उन्हें वापस वहीँ पहुंचा देगी l पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- " ऊँट को नकेल से , बैल को डंडे से , घोड़े को लगाम से और हाथी को अंकुश के सहारे वश में किया जाता है l सरकस के जानवरों को उनका शिक्षक चाबुक से डराकर इच्छित कृत्य सिखाता है और कराता है l ईश्वर विश्वास और आस्तिकता की भावना मनुष्य की उच्श्रृंखलता पर अंकुश लगाती है l व्यक्ति के जीवन क्रम और चरित्र को बनाने के लिए अध्यात्म की , ईश्वर भक्ति की आवश्यकता है ताकि मनुष्य जाति का जीवन श्रेष्ठ व समुन्नत बना रहे l "
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