संत सुकरात को वहां के कानून से मृत्यु दंड की सजा दी गई l सुकरात के शिष्य अपने गुरु के प्राण बचाना चाहते थे l उन्होंने जेल से भाग निकलने की एक सुनिश्चित योजना बनाई और उसके लिए सारा प्रबंध भी कर लिया l प्रसन्नता भरा समाचार देने और योजना समझाने को उनका एक शिष्य जेल पहुंचा और सारी व्यवस्था उन्हें कह सुनाई l शिष्य को आशा थी कि प्राण रक्षा का प्रबंध देखकर गुरु प्रसन्न होंगे l सुकरात ने सारी बात सुनी और दुखी होकर कहा ---- " मेरे शरीर की अपेक्षा मेरा आदर्श श्रेष्ठ है l मैं मर जाऊं और मेरा आदर्श जीवित रहे , वही उत्तम है , किन्तु यदि आदर्शों को खोकर जीवित रहा तो वह मृत्यु से भी अधिक कष्टकारक होगा l न तो मैं सहज विश्वासी जेल कर्मचारियों को धोखा देकर उनके लिए विपत्ति का कारण बनूँगा और न जिस देश की प्रजा हूँ , उसके कानून का उल्लंघन करूँगा l कर्तव्य मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है l '
योजना रद्द करनी पड़ी l सुकरात ने हँसते हुए विष का प्याला पिया और मृत्यु का संतोष पूर्वक आलिंगन करते हुए कहा ----- " हर भले आदमी के लिए यही उचित है कि वह विपत्ति आने पर भी कर्तव्य धर्म से विचलित न हो l "
योजना रद्द करनी पड़ी l सुकरात ने हँसते हुए विष का प्याला पिया और मृत्यु का संतोष पूर्वक आलिंगन करते हुए कहा ----- " हर भले आदमी के लिए यही उचित है कि वह विपत्ति आने पर भी कर्तव्य धर्म से विचलित न हो l "
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