एक चोर चोरी करता हुआ पकड़ा गया l राजा ने उसे फाँसी की सजा दे दी l जब उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उसने कहा --- 'मैं प्रजापालक महाराज के एक बार दर्शन करना चाहता हूँ l ' राजा चोर के पास आया तो चोर ने कहा --- " राजन ! मुझे मरने का कोई अफ़सोस नहीं है , पर एक विद्या मेरी मृत्यु के साथ ही इस संसार से लुप्त हो जाएगी , इसी का अफ़सोस है l " राजा ने पूछा --- " कौन सी विद्या ? " चोर बोला ---- " सोने की कृषि l मैं खेतों में सोना देने वाले पेड़ उगा सकता हूँ l " राजा ने फाँसी की सजा स्थगित कर दी और चोर के कहने पर बड़ा सा खेत जुतवा दिया l दिन - रात हल चलने लगे , कोई मिटटी की जांच करता , कोई नमी की l राजा स्वयं दिन में तीन - चार बार जाकर देखता l जिस दिन बीज बोने का क्रम आया , सारी प्रजा खेत के चारों ओर खड़ी थी l चोर आया और अपनी जेब से काले -काले जंगली घास के से बीज उसने निकाले l एक ऊँची जगह खड़ा होकर वह बोला ----- " यह स्वर्णलता के बीज हैं , जो मैं शल्य देश से लाया था , पर काश ! मैं पहले से चोर न होता तो खुद ही सोना उगाकर पृथ्वी का कुबेर बन जाता l " बात को समझाकर उसने कहा ---- " इन बीजों को वही बो सकता है जिसने पहले कभी चोरी न की हो , कोई अपराध न किया हो l यदि अपराध किया होगा तो शरीर तुरंत संज्ञाशून्य होकर गिर जायेगा l आप तो सभी धर्मात्मा हैं , आइये l " यह सुनकर सब धीरे - धीरे वहां से खसक गए क्योंकि सभी ने कभी न कभी कोई अपराध किया ही है l अब राजा भी जाने लगे तो वह बोला --- " महाराज आप तो बो ही सकते हैं l " महाराज चुप रहे वे स्वयं को जानते थे l तब चोर बोला --- " फिर महाराज ! मुझे अकेले को फाँसी क्यों दे रहे हैं l " राजा ने उसे क्षमा कर दिया l अपनी चतुरता से आंतरिक कमजोरियों की बात कर चोर ने स्वयं को बचा लिया l
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