26 June 2021

WISDOM ---

   पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ------ ' अहंकार  बातों  से नहीं   क्रियाओं  से  व्यक्त  होता  है   l '    पुराण  में  एक  कथा  है  ---- महाराज  युधिष्ठिर   धर्म  के  मार्ग  पर  चलने  वाले  और  सत्यवादी  थे  l   महाभारत  के  युद्ध  में    युधिष्ठिर  का  रथ   धरती  से  चार  अंगुल  ऊपर  चलता  था    लेकिन  जब   युद्ध  में  उनसे  जबरन  झूठ  बुलवाया  गया ,   आचार्य  द्रोण   के  पूछने  पर  उन्होंने  कहा  --- हाँ , अश्वत्थामा  मारा  गया  , उनके  इतना  बोलते  ही  पांडवों  ने  इतना  जोर  से  शंखनाद  किया   कि   शेष  शब्द  '  मंनुष्य  नहीं  हाथी  '  द्रोणाचार्य  को  सुनाई  नहीं  दिए     और  उन्होंने  अपने  अस्त्र - शस्त्र   जमीन  पर  रख  दिए  ------ इस  एक  झूठ  के  बोलते  ही    युधिष्ठिर   का    रथ  धरती  से  स्पर्श  होकर  चलने  लगा  l   युद्ध  समाप्त  हुआ   l   युधिष्ठिर  का  राज्याभिषेक  हुआ  l   वे  प्रजा  का  सब  तरह  से  ध्यान  रखते  ,  उनके  पास  अक्षय  पात्र  था  ,  समग्र  प्रजा  को  मनपसंद  व्यंजन , पकवान   प्रदान  करते  l   उनके  राज्य  में  सोलह  हजार   प्रबुद्ध  ब्राह्मण  थे ,   दान  - पुण्य , स्वादिष्ट  भोजन  आदि  से  प्रसन्न  होकर   वे  सब  महाराज  का  जयगान - यशोगान   करते   l   इससे  युधिष्ठिर  को  अभिमान  हो  गया  - सात्विक  अभिमान  l    भगवान     कृष्ण  को  अपने  शिष्य  का  यह  अहंकार  सहन  नहीं  हुआ  ,  उनकी  दृष्टि  में    अक्षय  पात्र   और  सोलह  हजार  ब्राह्मणों  को  प्रतिदिन  भोजन  कराना   कोई  बड़ी  बात  नहीं  थी   l   उन्होंने  युधिष्ठिर  को  समझाया  भी  कि   यह  पुण्य  कार्य  है  इसके  लिए  अभिमान  उचित  नहीं  है   l  युधिष्ठिर  कहते  ---- " परन्तु  प्रभु  , मैंने  तो    ऐसी  कोई  बात  नहीं  की   जिससे  अभिमान  टपकता  हो   l  l "  भगवान  कृष्ण  ने  कहा  --- "  अभिमान  बातों  से  नहीं  क्रियाओं  से  टपकता  है  l   फिर  वे   युधिष्ठिर  को  लेकर  महाराज  बलि  के  पास  गए   और  युधिष्ठिर  का  परिचय  देते  हुए  कहा  ---- ' ये  पांडवों  के  अग्रज  महादानी  युधिष्ठिर  हैं   l   इनके  दान  से  मृत्यु लोक  के  प्राणी  उपकृत  हो  रहे  हैं  ,  और  अब  वे  तुम्हारा  स्मरण  भी  नहीं  करते  l   दैत्यराज  बलि  ने  कहा  --- "  मैंने  स्मरण   करने  जैसा  कोई  कार्य  नहीं  किया  ,  केवल  भगवान  वामन  को  तीन  पग  भूमि  दान  की  l  "  भगवान  ने  कहा  --- ' तुमने  सब  कुछ  खोकर  भी  अपना  वचन  पूरा  किया  ,  तुम्हारी  ख्याति  अमर  है   l   अब  मृत्युलोक  में  युधिष्ठिर  का  यशोगान  है  l   बलि  ने  युधिष्ठिर  की  कोई  पुण्य गाथा    सुनाने  के  लिए  भगवान  से  आग्रह  किया   l   तब  भगवान  ने  उनके  पूर्व  जीवन   वंश  का  विवरण  सुनाया  और  अक्षय  पात्र  और  सोलह  हजार  ब्राह्मणों  को   नियमित  भोजन  कराने  की  परंपरा   का  भी  उल्लेख  किया   l   तब  दानवराज  बलि  ने  कहा ---- "  आप   इसे  दान  कहते  हैं  ,  लेकिन  यह  तो  महापाप  है  l   बलि  ने  कहा  ---  धर्मराज   ! केवल  अपने  दान  के   दम्भ  को  पूरा  करने  के  लिए     ब्राह्मणों  को  आलसी  बनाना     पाप  है   l   मेरे  राज्य  में  तो   याचक  को   नित्य  भोजन  की  सुविधा  दी  जाये  तो  वह  स्वीकार  नहीं  करेगा   l  "  यह  सुनकर   युधिष्ठिर  का  अहंकार   चूर  हो   गया  और  वे  विनम्रता पूर्वक  पुण्य  कार्य  में  संलग्न  हो  गए   l 

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