पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ------ ' अहंकार बातों से नहीं क्रियाओं से व्यक्त होता है l ' पुराण में एक कथा है ---- महाराज युधिष्ठिर धर्म के मार्ग पर चलने वाले और सत्यवादी थे l महाभारत के युद्ध में युधिष्ठिर का रथ धरती से चार अंगुल ऊपर चलता था लेकिन जब युद्ध में उनसे जबरन झूठ बुलवाया गया , आचार्य द्रोण के पूछने पर उन्होंने कहा --- हाँ , अश्वत्थामा मारा गया , उनके इतना बोलते ही पांडवों ने इतना जोर से शंखनाद किया कि शेष शब्द ' मंनुष्य नहीं हाथी ' द्रोणाचार्य को सुनाई नहीं दिए और उन्होंने अपने अस्त्र - शस्त्र जमीन पर रख दिए ------ इस एक झूठ के बोलते ही युधिष्ठिर का रथ धरती से स्पर्श होकर चलने लगा l युद्ध समाप्त हुआ l युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ l वे प्रजा का सब तरह से ध्यान रखते , उनके पास अक्षय पात्र था , समग्र प्रजा को मनपसंद व्यंजन , पकवान प्रदान करते l उनके राज्य में सोलह हजार प्रबुद्ध ब्राह्मण थे , दान - पुण्य , स्वादिष्ट भोजन आदि से प्रसन्न होकर वे सब महाराज का जयगान - यशोगान करते l इससे युधिष्ठिर को अभिमान हो गया - सात्विक अभिमान l भगवान कृष्ण को अपने शिष्य का यह अहंकार सहन नहीं हुआ , उनकी दृष्टि में अक्षय पात्र और सोलह हजार ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन कराना कोई बड़ी बात नहीं थी l उन्होंने युधिष्ठिर को समझाया भी कि यह पुण्य कार्य है इसके लिए अभिमान उचित नहीं है l युधिष्ठिर कहते ---- " परन्तु प्रभु , मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं की जिससे अभिमान टपकता हो l l " भगवान कृष्ण ने कहा --- " अभिमान बातों से नहीं क्रियाओं से टपकता है l फिर वे युधिष्ठिर को लेकर महाराज बलि के पास गए और युधिष्ठिर का परिचय देते हुए कहा ---- ' ये पांडवों के अग्रज महादानी युधिष्ठिर हैं l इनके दान से मृत्यु लोक के प्राणी उपकृत हो रहे हैं , और अब वे तुम्हारा स्मरण भी नहीं करते l दैत्यराज बलि ने कहा --- " मैंने स्मरण करने जैसा कोई कार्य नहीं किया , केवल भगवान वामन को तीन पग भूमि दान की l " भगवान ने कहा --- ' तुमने सब कुछ खोकर भी अपना वचन पूरा किया , तुम्हारी ख्याति अमर है l अब मृत्युलोक में युधिष्ठिर का यशोगान है l बलि ने युधिष्ठिर की कोई पुण्य गाथा सुनाने के लिए भगवान से आग्रह किया l तब भगवान ने उनके पूर्व जीवन वंश का विवरण सुनाया और अक्षय पात्र और सोलह हजार ब्राह्मणों को नियमित भोजन कराने की परंपरा का भी उल्लेख किया l तब दानवराज बलि ने कहा ---- " आप इसे दान कहते हैं , लेकिन यह तो महापाप है l बलि ने कहा --- धर्मराज ! केवल अपने दान के दम्भ को पूरा करने के लिए ब्राह्मणों को आलसी बनाना पाप है l मेरे राज्य में तो याचक को नित्य भोजन की सुविधा दी जाये तो वह स्वीकार नहीं करेगा l " यह सुनकर युधिष्ठिर का अहंकार चूर हो गया और वे विनम्रता पूर्वक पुण्य कार्य में संलग्न हो गए l
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