पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' आज कितना ज्यादा दिखावा धर्म क्षेत्र में दिखाई दे रहा है l लगता है भगवान के भक्तों की संख्या अनंत गुनी है , सभी उन्हें पाने का प्रयास कर रहे हैं l धार्मिक स्थलों पर जाने वालों की संख्या , कथा सुनने - सुनाने वालों की संख्या और भावावेश में आकर नाच उठने वाले साधकों की संख्या अगणित है l पर क्या वे वास्तव में प्रभु के स्वरुप को जानते हैं ? ' श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --- दिखावा अलग बात है , पर प्रभु को जानना दूसरी बात है l जिसने भगवान को जान लिया उसने दुनिया का सारा दरद जान लिया l ' आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' जीवन का सत्य बाहरी आवरण में नहीं है l फिर बाहरी परिवर्तन से , वेश और व्यवहार बदलने से क्या होगा ? '------ एक कथा है ------ एक शहर में एक दिन , एक ही समय दो मौतें हुईं -- एक संन्यासी थे और एक नर्तकी l जैसे ही उनकी मृत्यु हुई , ऊपर से दूत उनको लेने के लिए आए l एक आश्चर्य यह था कि वे दूत नर्तकी को स्वर्ग की ओर ले चले और संन्यासी को घसीटते हुए नरक की ओर l संन्यासी से सहन न हुआ , वह दूतों से बोला ---- ' अरे भाई ! तुम अपनी भूल सुधारो , नर्तकी को स्वर्ग ले जा रहे हो और मुझे नरक l म यह अन्याय और अंधेरगर्दी है l ' दूतों ने कहा --- नहीं , ऐसी बात नहीं है l तुम थोड़ा सा नीचे देखो l ' संन्यासी ने धरती की ओर देखा , तो वहां उसके मृत शरीर को फूलों से सजाया गया था , बहुत भीड़ थी , लोग रामनाम गाते हुए उसे ले जा रहे थे , चन्दन की चिता तैयार थी l दूसरी ओर नर्तकी की लाश पड़ी थी , अब उसे पूछने वाला कोई नहीं था l ' यह देख संन्यासी ने कहा ---' तुमसे ज्यादा समझदार तो धरती के लोग हैं जो मुझ पर न्याय कर रहे हैं l ' दूत हंसने लगे और बोले --- ' वे बेचारे तो केवल वही जानते हैं , जो बाहर था , इन लोगों ने वही जाना जो तुम दिखाते रहे , जो तुमने लोगों के सामने किया परन्तु जो तुम सोचते रहे , मन की दीवारों के भीतर करते रहे उसे ये सब जान नहीं पाए l तुम्हारा मन सदा नर्तकी में अनुरक्त रहा , मन भोग और वासना में डूबा था l मृत्यु की घड़ी में भी तुम्हारे चित्त में अहंकार था , वासना थी जबकि नर्तकी निरंतर यही सोचती रही कि इन संन्यासी महाराज का जीवन कितना आनंदपूर्ण है l रात को तुम जब भजन गाते थे तब वह बेचारी विकल होकर रोती थी , वह अपने पापों की पीड़ा से विगलित होती जाती थी l मृत्यु की घड़ी में उसके चित्त में न अहंकार था , न वासना थी l उसका चित्त तो परमात्मा के प्रकाश , प्रेम एवं प्रार्थना से परिपूर्ण था l " अध्यात्म अंत:करण में परिवर्तन है , आंतरिक जीवन का , चित्त का रूपांतरण है l
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