पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- ' वैराग्य की पहली पाठशाला गृहस्थ जीवन है l उसी को तपोवन बना लिया जाए तो वहां रहकर भी साधना की जा सकती है l ' ------ देवदत्त ईश्वर भक्त था , बात -बात में पत्नी को धमकी देता था कि देख ! यदि अमुक काम नहीं किया , सतर्क नहीं रही तो मैं संत पुनीत के आश्रम चला जाऊँगा l उसकी पत्नी यह सोच -सोचकर दुबली होती गई कि कहीं सचमुच न चले जाएँ l उसकी पत्नी ने एक दिन संत को अपनी व्यथा बताई l संत ने कहा --- " अबकी बार धमकी दे तो मेरे पास भेज देना l मैं उसे ठीक कर दूंगा l " अगले दिन भोजन बनाने में कुछ देर हो गई l देवदत्त ने फिर धमकी दी l उसकी पत्नी ने कहा --- 'कल क्यों , आज ही चले जाइए l ' देवदत्त के अहं पर चोट थी , वह आश्रम चला गया l रात को आश्रम में सोने की व्यवस्था हो गई , अगले दिन वह संन्यास दीक्षा के लिए पुनीत महाराज के पास पहुंचा l उन्होंने कहा --- अपने कपड़े यहाँ रख दो और नहाकर आओ l जब वह नहाने गया तो संत के इशारे पर उसके कपड़ों कुछ काटकर ख़राब कर दिया , स्वल्पाहार के लिए कडुए फल रखे l ऐसी व्यवस्था से उसे बहुत क्रोध आया और वह सेवकों को अपशब्द कहने लगा l महर्षि बोले ---- " वैरागी को पहले संतोषी , धैर्यवान और सहनशील बनना होता है l " देवदत्त बोला --- 'यह तो मैं मैं घर पर भी कर सकता था l आपके पास तो विशिष्ट साधना के लिए आया हूँ l ' महर्षि पुनीत बोले --- " तात ! घर लौटकर सद्गुणों का अभ्यास करो l विभूतियाँ तो बाद की बातें हैं l " देवदत्त समझ गया कि सद्गुणों के सहारे सुख -शांति का जीवन जिया जा सकता है l
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