अंत:करण की उत्कृष्टता को श्रद्धा के नाम से जाना जाता है | श्रद्धा का अर्थ है -श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था | यह आस्था जब सिद्धांत एवं व्यवहार में उतरती है तो उसे निष्ठा कहते हैं | श्रद्धा का आविर्भाव सरलता और पवित्रता के संयोग से होता है | राम चरित मानस में श्रद्धा को भवानी और विश्वास को शंकर बताया गया है ,इन्ही दोनों की सहायता से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है | श्रद्धा तप है ,यह ईश्वरीय आदेशों पर निरंतर चलते रहने की प्रेरणा देती है | आलस्य से बचाती है ,कर्तव्य पालन में प्रमाद से बचाती है ,सेवा धर्म सिखाती है ,अंतरात्मा को प्रफुल्ल ,प्रसन्न रखती है | इस प्रकार के तप और त्याग से श्रद्धावान व्यक्ति के ह्रदय में पवित्रता एवं शक्ति का भंडार अपने आप भरता चला जाता है |
एक बणिक था ,नाम था -शौर पुच्छ | उसने एक बार भगवान बुद्ध से कहा -"भगवन !मेरी सेवा स्वीकार करें | मेरे पास एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ हैं ,वह सब आपके काम आयें | "बुद्ध कुछ न बोले चुपचाप चले गये | कुछ दिन बाद वह पुन:तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ और कहने लगा -"देव !ये वस्त्र और आभूषण लें ,दुखियों के काम आयेंगे ,मेरे पास अभी बहुत सा धन शेष है | "बुद्ध बिना कुछ कहे वहां से उठ गये | शौर पुच्छ बड़ा दुखी था कि वह गुरुदेव को किस तरह प्रसन्न करे ?
वैशाली में उस दिन महान धर्म सम्मेलन था हजारों व्यक्ति आये थे | बड़ी व्यवस्था जुटानी थी | सैंकड़ों शिष्य और भिक्षु काम में लगे थे | आज शौर पुच्छ ने किसी से कुछ न पूछा ,काम में जुट गया | रात बीत गई ,सब लोग चले गये ,पर शौर पुच्छ बेसुध कार्य में निमग्न रहा | बुद्ध उसके पास पहुँचे और बोले -"वत्स !तुमने प्रसाद पाया या नहीं ?"शौर पुच्छ का गला रुंध गया | भाव -विभोर होकर उसने तथागत को प्रणाम किया | बुद्ध ने कहा वत्स !परमात्मा किसी से धन और संपति नहीं चाहता ,वह तो निष्ठा का भूखा है वह लोगों की निष्ठा में ही रमण किया करता है |
ईश्वर को न किसी से मनुहार चाहिये ,न उपहार | चरित्रवान और लोकसेवी बनकर ही हम उसे प्रसन्न कर सकते हैं |
एक बणिक था ,नाम था -शौर पुच्छ | उसने एक बार भगवान बुद्ध से कहा -"भगवन !मेरी सेवा स्वीकार करें | मेरे पास एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ हैं ,वह सब आपके काम आयें | "बुद्ध कुछ न बोले चुपचाप चले गये | कुछ दिन बाद वह पुन:तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ और कहने लगा -"देव !ये वस्त्र और आभूषण लें ,दुखियों के काम आयेंगे ,मेरे पास अभी बहुत सा धन शेष है | "बुद्ध बिना कुछ कहे वहां से उठ गये | शौर पुच्छ बड़ा दुखी था कि वह गुरुदेव को किस तरह प्रसन्न करे ?
वैशाली में उस दिन महान धर्म सम्मेलन था हजारों व्यक्ति आये थे | बड़ी व्यवस्था जुटानी थी | सैंकड़ों शिष्य और भिक्षु काम में लगे थे | आज शौर पुच्छ ने किसी से कुछ न पूछा ,काम में जुट गया | रात बीत गई ,सब लोग चले गये ,पर शौर पुच्छ बेसुध कार्य में निमग्न रहा | बुद्ध उसके पास पहुँचे और बोले -"वत्स !तुमने प्रसाद पाया या नहीं ?"शौर पुच्छ का गला रुंध गया | भाव -विभोर होकर उसने तथागत को प्रणाम किया | बुद्ध ने कहा वत्स !परमात्मा किसी से धन और संपति नहीं चाहता ,वह तो निष्ठा का भूखा है वह लोगों की निष्ठा में ही रमण किया करता है |
ईश्वर को न किसी से मनुहार चाहिये ,न उपहार | चरित्रवान और लोकसेवी बनकर ही हम उसे प्रसन्न कर सकते हैं |
No comments:
Post a Comment