राजर्षि ने बचपन से सच्चाई , ईमानदारी , निर्भीकता एवं द्रढ़ता का जो रास्ता एक बार अपनाया उसे जीवन भर नहीं छोड़ा । '
एक शहर में कसाईखाना खुलने वाला था , वहां के नागरिकों ने इसे न खोलने के लिए टंडन जी से मदद मांगी । उनकी समझ में यह बात नहीं आयी कि जब उस शहर में मांस खाने वाले कम हैं तो कसाईखाना क्यों खुल रहा है ?
नागरिकों ने बताया कि वहां गाये मांस के लिए नहीं , बल्कि चमड़े के लिए काटी जायेंगी । चमड़े के लिए गायों की हत्या की बात सुनकर टंडन जी को बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने उस दिन से चमड़े की जगह कपड़े के जूते पहनने शुरू किये । ये जूते पहनकर वे हाई कोर्ट भी जाते थे , सारा जीवन कपड़े के ही जूते पहनते रहे ।
1950 की बात है । साहित्यकारों ने टंडन जी को अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने की योजना बनायीं । टंडन जी उन दिनों दिल्ली में ही थे । उन्हें इस आयोजन की सूचना दी गई तब उन्होंने अभिनन्दन लेना अस्वीकार करते हुए आयोजकों को लिखा ---- " व्यर्थ के कार्यों में क्यों अपनी शक्ति गंवाते हो , मुझे इसमें कोई रूचि नहीं है । "
जब वे म्युनिसीपल बोर्ड के अध्यक्ष चुने गये , उन दिनों दूसरे अध्यक्ष रिश्वत लेकर लाखों रुपया कमाते थे किन्तु टंडन जी ने भूलकर भी ऐसी बेईमानी की कमाई नहीं की । उनके घर से म्यूनिसिपल आफिस चार मील दूर था , वे बिना किसी सवारी के पैदल ही आया -जाया करते थे ।
एक शहर में कसाईखाना खुलने वाला था , वहां के नागरिकों ने इसे न खोलने के लिए टंडन जी से मदद मांगी । उनकी समझ में यह बात नहीं आयी कि जब उस शहर में मांस खाने वाले कम हैं तो कसाईखाना क्यों खुल रहा है ?
नागरिकों ने बताया कि वहां गाये मांस के लिए नहीं , बल्कि चमड़े के लिए काटी जायेंगी । चमड़े के लिए गायों की हत्या की बात सुनकर टंडन जी को बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने उस दिन से चमड़े की जगह कपड़े के जूते पहनने शुरू किये । ये जूते पहनकर वे हाई कोर्ट भी जाते थे , सारा जीवन कपड़े के ही जूते पहनते रहे ।
1950 की बात है । साहित्यकारों ने टंडन जी को अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने की योजना बनायीं । टंडन जी उन दिनों दिल्ली में ही थे । उन्हें इस आयोजन की सूचना दी गई तब उन्होंने अभिनन्दन लेना अस्वीकार करते हुए आयोजकों को लिखा ---- " व्यर्थ के कार्यों में क्यों अपनी शक्ति गंवाते हो , मुझे इसमें कोई रूचि नहीं है । "
जब वे म्युनिसीपल बोर्ड के अध्यक्ष चुने गये , उन दिनों दूसरे अध्यक्ष रिश्वत लेकर लाखों रुपया कमाते थे किन्तु टंडन जी ने भूलकर भी ऐसी बेईमानी की कमाई नहीं की । उनके घर से म्यूनिसिपल आफिस चार मील दूर था , वे बिना किसी सवारी के पैदल ही आया -जाया करते थे ।
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