लघु -कथा ---- दो मित्र थे l साथ -साथ व्यापार करते थे l दोनों ने ही बहुत धन कमाया और दोनों में ही समाज सेवा की भावना प्रबल थी लेकिन दोनों का तरीका भिन्न था l पहला मित्र अन्न दान करता था , वस्त्र दान भी करता था और सोचता कि उसने बहुत पुण्य कर लिया लेकिन दूसरा मित्र केवल अपंग , वृद्ध , अपाहिजों और बहुत ही गरीब , असमर्थ लोगों को ही भोजन देता था l जो शरीर से काम करने योग्य उसके पास मदद को आते उन्हें वह अपने खर्च से कोई न कोई हुनर सिखवा देता या कोई भी ऐसी व्यवस्था करा देता जिससे वह धन कमा कर अपने और अपने परिवार की भोजन की व्यवस्था स्वयं कर सकें l अपने जीवन में उसने हजारों लोगों को स्वाभिमान से जीवन जीने का अवसर दिया l वह जिस रास्ते से निकलता लोग उसकी जय जयकार करते l यह देखकर पहले मित्र को बड़ी ईर्ष्या होती थी l एक पहुंचे हुए संत से उसने परामर्श किया तो उन्होंने कहा ----तुम्हारा वह मित्र लोगों का ह्रदय जीतने की कला जानता है , लोगों को जीवन जीना सिखाता है और तुम शरीर से काम करने योग्य लोगों को भी अपने दान से आलसी बना रहे हो l भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया है l आलसी को भगवान भी पसंद नहीं करते , लोगों को कर्मयोगी बनाओ l
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