यह कथा उस समय की है जब कौरव -पांडव बहुत छोटे बालक थे l ये सब राजकुमार नगर से बाहर कहीं गेंद खेल रहे थे कि इतने में उनकी गेंद एक अंधे कुएं में जा गिरी l युधिष्ठिर उसको निकालने का प्रयत्न करने लगे तो उनकी अंगूठी भी कुएं में जा गिरी l सभी राजकुमार कुएं के चारों ओर खड़े हो गए , उन्हें गेंद निकालने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था l एक ब्राह्मण मुस्कराता हुआ यह सब देख रहा था , उसने उन राजकुमारों से कहा ---- " राजकुमारों ! तुम क्षत्रिय हो ,भरत वंश के दीपक हो l जरा सी धर्नुविद्या जानने वाले जो काम कर सकते हैं , वह भी तुम लोगों से नहीं हो सकता l बोलो , मैं गेंद निकाल दूँ तो तुम मुझे क्या दोगे ? " युधिष्ठिर ने हँसते हुए कहा --- " ब्राह्मण श्रेष्ठ ! आप यदि गेंद निकाल देंगे तो कृपाचार्य के घर आपकी बढ़िया दावत करेंगे l " तब द्रोणाचार्य ने पास में पड़ी एक सींक उठा ली और मन्त्र पढ़कर उसे कुएं में फेंका l सींक गेंद में जाकर ऐसे लगी जैसे कोई तीर हो l फिर इस तरह वे लगातार मन्त्र पढ़कर सींक कुएं में डालते रहे l सीकें एक -दूसरे के सिरे से चिपकती गईं l जब आखिरी सींक का सिरा कुएं के बाहर पहुंचा तो द्रोणाचार्य ने उसे पकड़कर खींचा और गेंद बाहर निकल आई l सब राजकुमार आश्चर्य से यह करतब देखकर उछल पड़े l उन्होंने ब्राह्मण से विनती की कि युधिष्ठिर की अंगूठी भी निकाल दें l द्रोणाचार्य ने तुरंत धनुष चढ़ाया और कुएं में तीर मारा l पल भर में बाण अंगूठी को अपनी नोक में लिए ऊपर आ गया l राजकुमारों के आश्चर्य की सीमा न रही l उन्होंने द्रोणाचार्य के आगे आदर पूर्वक सिर झुकाया और कहा --- " आप अपना परिचय दीजिये और हमें आगया दें कि हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं l " द्रोणाचार्य ने कहा ---" राजकुमारों ! यह सारी घटना सुनाकर पितामह भीष्म से ही मेरा परिचय प्राप्त करो l राजकुमारों ने जाकर पितामह भीष्म को सारी बात सुनाई तो वे समझ गए कि वे सुप्रसिद्ध आचार्य द्रोणाचार्य ही हैं , उन्होंने बड़े सम्मान के साथ द्रोणाचार्य का स्वागत किया और राजकुमारों को आदेश दिया कि वे गुरु द्रोणाचार्य से धर्नुविद्या सीखा करें l
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