मनुष्य के जीवन में सुख -दुःख , दिन और रात की तरह आते -जाते हैं l लेकिन कभी -कभी रात बहुत गहरी और अमावस्या के अंधकार की तरह अँधेरी होती है l जीवन का यह अंधकार किसी तरह छंटता ही नहीं है , दुःखों की श्रंखला चलती ही रहती है l सुबह के इंतजार में आँखें भी थक जाती हैं l ऐसा क्यों होता है ? यदि हम पुनर्जन्म के सिद्धांत को माने तो इस प्रश्न का उत्तर मिल सकता है l एक साधारण व्यक्ति यदि कोई भूल करता है तो ईश्वरीय विधान में उसे मिलने वाली सजा भी साधारण ही होती है क्योंकि वह बहुत साधारण व्यक्ति है , उसकी गलती ने समाज को प्रभावित नहीं किया l लेकिन एक ऐसा व्यक्ति जो कला , साहित्य , शिक्षा , संस्कृति , चिकित्सा , राजनीति , धार्मिक संस्था आदि किसी भी क्षेत्र में ऊँचे पद पर है , उसकी कही बात , उसके कार्य समाज को प्रभावित करते हैं , ऐसा व्यक्ति यदि अपनी गरिमा के विरुद्ध अनैतिक , अमर्यादित आचरण करे , समाज से छुपकर भी कोई गलत काम करे , अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए धोखा , छल -कपट करे तो यह सब ईश्वर से नहीं छुपाया जा सकता l ऐसे व्यक्तियों की अँधेरी रात बहुत लंबी होती है , शायद सुबह आने में कई जन्मों की यात्रा तय करनी पड़े l पुराण की एक कथा है ----- भगवान विष्णु के द्वारपाल जय -विजय थे l उन्हें अपने इस अधिकार पर घमंड हो गया l वे चाहते थे सब उनसे पूछकर , उनकी अनुमति से ही भगवान विष्णु से मिलने जाएँ l यदि कोई उनसे न पूछे तो उन्हें इसमें अपना अपमान महसूस होता था l इन द्वारपालों ने अपने अधिकारों का दुरूपयोग कर नारायणप्रिया , स्वयं गृह स्वामिनी लक्ष्मी को भी भीतर जाने से रोक दिया l लक्ष्मी जी मौन रह गईं , लेकिन जिस दिन उन्होंने अपने अहंकार के कारण सनक , सनंदन , सनातन और सनत्कुमार जैसे ऋषियों का अपमान किया , उन्हें भीतर जाने से रोक दिया , तब वे चुप न रहे l उन्होंने दोनों को असुर होने का शाप दे दिया l तीन कल्पों में उन्हें हिरण्याक्ष -हिरण्यकशिपु , रावण -कुम्भकरण , एवं शिशुपाल -दुर्योधन के रूप में जन्म लेना पड़ा l संतों को उन्हें यह पाठ पढ़ाना था कि अहंकार व्यर्थ है l वैकुंठवासी होने के नाते स्वयं को पतन के भय से मुक्त मान लेना किसी के लिए भी पतन का कारण बन सकता है l पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- 'पद जितना बड़ा होता है , सामर्थ्य उतनी ही ज्यादा और दायित्व उतने ही गंभीर l ऐसा ही अपमान किसी साधारण द्वारपाल ने किया होता तो इतने परिमाण में दंड नहीं चुकाना पड़ता l सामर्थ्य का गरिमापूर्ण एवं न्यायसंगत निर्वाह ही श्रेष्ठ मार्ग है l "
No comments:
Post a Comment