एक बार की बात है भगवान विष्णु धरती के निवासियों से बहुत प्रसन्न थे और मुक्त हस्त से सभी प्राणियों को उनकी इच्छानुसार धन -धन्य , सुख -स्वास्थ्य , धन -रत्न , पुत्र -पौत्र , वैभव -विलास सब वितरित कर रहे थे l वैकुण्ठ में बड़ी भीड़ थी l वैकुण्ठ का कोष रिक्त होते देख महालक्ष्मी ने विष्णु जी से कहा ---" यदि इस प्रकार मुक्त भाव से आप संपदा लुटाते रहे तो वैकुण्ठ में कुछ नहीं बचेगा , तब हम क्या करेंगे ? " विष्णुजी मंद -मंद हँसे और बोले ---- " देवी ! मैंने सारी संपदा तो नहीं दी l एक निधि ऐसी है जिसे नर , किन्नर , गन्धर्व , देवता , असुर किसी ने भी नहीं माँगा है l " महालक्ष्मी पूछ बैठीं --- " कौन सी निधि ? " विष्णु जी ने कहा ---- " शांति --- उसे कोई नहीं मांगता l ये प्राणी भूल गए हैं कि शांति के बिना कोई भी संपदा पास नहीं रह सकेगी l उन्होंने जो माँगा वह मैंने दिया l अपने लिए मैंने मात्र शांति की निधि सुरक्षित रख ली है l आज के युग की सच्चाई यही है , चाहे कितने ही सुख के साधन हो , लेकिन किसी के मन को शांति नहीं है , सब भाग रहे हैं , एक अंधी दौड़ है l यह शांति कैसे मिले ? ------- देवर्षि नारद के गुरु थे --सनत्कुमार जी l नारद जी ने उनसे ही सारी विद्याएँ , कलाएं सीखीं l गुरु ने अपनी दिव्य द्रष्टि से देखा कि इतने ज्ञान के बावजूद नारद के मन में आकुलता है , शांति नहीं है l सनत्कुमार जी ने नारद जी से कहा --- " तुम अपने ज्ञान का घमंड नहीं करो , भूल जाओ कि तुम ज्ञानी हो , अपने ज्ञान को भक्ति के साथ वितरित करना आरम्भ कर दो l ज्ञान , भक्ति और कर्म के संयोग से ही तुम्हारे मन को शांति मिलेगी l नारद जी ने भक्ति गाथा लिखी , संसार में भ्रमण करते हुए उसको जन -जन तक उसे पहुँचाया तब उनके मन को शांति मिली और वे भक्त शिरोमणि कहलाये l अनेकों को परामर्श देकर उनके जीवन की दिशा बदल दी l उनके परामर्श से ही ध्रुव , प्रह्लाद , महर्षि वाल्मीकि भक्ति के चरम पर पहुंचे l
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