पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- " पद जितना बड़ा होता है , सामर्थ्य उतनी ही ज्यादा और दायित्व भी उतने ही गंभीर l जो ज्ञानी हैं वे अपनी बढ़ती हुई सामर्थ्य का उपयोग पीड़ितों के कष्ट हरने एवं भटकी मानवता को दिशा दिखाने में करते हैं l सामर्थ्य का गरिमापूर्ण एवं न्यायसंगत निर्वाह ही श्रेष्ठ मार्ग है l " ---------------------- बोधिसत्व सुंदर कमल के तालाब के पास बैठे वायु सेवन कर रहे थे l कमल की मनोहर छटा देखकर वे सरोवर में उतर गए और निकट जाकर कमल की गंध का पान कर तृप्त हो रहे थे l उसी समय किसी देवकन्या का स्वर उन्हें सुनाई दिया ------ ' तुम बिना कुछ दिए ही इन पुष्पों की सुरभि का सेवन कर रहे हो l ' बोधिसत्व कुछ कहते , उसी समय एक व्यक्ति आया और सरोवर में घुसकर निर्दयतापूर्वक कमल -पुष्प तोड़ने लगा l उसे रोकना तो दूर , देवकन्या ने उसे मना भी नहीं किया l बोधिसत्व ने उस देवकन्या से पूछा --- " देवी ! मैंने तो केवल पुष्पों का गंधपान ही किया था , पर अभी आए इस व्यक्ति ने कितनी निर्दयता के साथ पुष्पों को तोड़कर तालाब को असुंदर और अस्वच्छ बनाया , तब तो तुमने इसे कुछ भी नहीं कहा l " बोधिसत्व की बात सुनकर देवकन्या गंभीर होकर कहने लगी --- " तपस्वी ! लोभ तथा तृष्णा में डूबे संसारी मनुष्य धर्म , अधर्म में भेद नहीं कर पाते l अत: उन पर धर्म की रक्षा का भार नहीं है , किन्तु जो धर्मरत हैं , सत -असत का ज्ञाता है , नित्य अधिक से अधिक पवित्रता और महानता के लिए सतत प्रयत्नशील है , उनका तनिक सा भी पथभ्रष्ट होना एक बड़ा पातक बन जाता है l " बोधिसत्व ने मर्म को समझ लिया कि जिन पर धर्म -संस्कृति की रक्षा का भार होता है , समाज में सर्वोपरि पद पर रहने के कारण उनके दायित्व भी बढ़े -चढ़े होते हैं l अत: अधिक सजग होना उनके लिए एक अनिवार्य कर्तव्य है l
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