'सतत सेवा एवं पुण्य -परमार्थ करते रहने से जीवन में सौभाग्य के सुअवसर आते हैं और दुर्भाग्य का जाल कटता रहता है | '
सौभाग्य चुपके से दबे पाँव आता है और जीवन के दरवाजे पर दस्तक देकर चला जाता है | सौभाग्य के सुअवसर की पहचान बुद्धि एवं विवेक के द्वारा ही संभव है ,जो ऐसा कर पाता है ,उसके जीवन में सौभाग्य विविध रूपों में आता है | सौभाग्य सम्मान एवं आदर की अपेक्षा करता है | जो सुख -सौभाग्य को जितना आदर -मान देता है ,उसके जीवन में वह उतना ही गहराई से अपना प्रभाव दिखाता है | यदि जीवन में सौभाग्य का उदय पद एवं प्रतिष्ठा के रूप में हुआ है तो उसे बनाये रखने के लिये इस सौभाग्य के समय को पुण्य -परमार्थ ,सेवा -कार्यों में नियोजित करना चाहिये ,तो यह सौ गुना ,हजार गुना होकर वापस लौट आता है |
जो लोग वैभव ,संपदा प्राप्त होने पर अहंकारी हो जाते हैं ,इसका दुरूपयोग करते हैं ,उनके जीवन में यह समय से पूर्व ही विदा हो सकता है | सुख -सौभाग्य के समय का दुरूपयोग करने वाले समय से पूर्व ही संचित कोश को रिक्त कर देते हैं और फिर दुर्भाग्य का रोना रोते हैं |
सौभाग्य कई रूपों में आता है | श्री जुगल किशोर बिड़ला के जीवन में एक अवसर आया .जब उनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी | इतने अभाव में भी वे एक महात्मा को नित्य दो बार अपने हाथों से भोजन कराते थे | ऐसा एक भी दिन नहीं आया कि उन साधु को भोजन कराये बिना स्वयं अन्न ग्रहण किया हो
एक बार बिड़ला जी थके -हारे काम से आये थे ,आँधी -तूफान के साथ तेज वर्षा हो रही थी | भूख भी लग रही थी | खाना परोसा गया ,जैसे ही वे रोटी का टुकड़ा अपने मुँह में लेने लगे तो उन्हें उस साधु की याद आई ,जिसको खिलाये बिना वे अन्न के एक दाने को हाथ भी नहीं लगाते थे | आज यह कैसे अनर्थ हो गया ,वे खाना छोड़कर और साधु का भोजन लेकर बेसब्री से दौड़ पड़े | साधु सारी स्थिति से अवगत थे | साधु ने कहा -"तू आज अपना खाना छोड़कर मुझे खिलाने आया है इसलिये आज मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तेरे पास संपदा एवं संपति की कोई कमी नहीं होगी | "बिड़ला जी ने इस दिव्य अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया और महात्मा की कृपा से अथाह चल -अचल संपदा के स्वामी बने | सौभाग्य कृपा के रूप में भी बरस पड़ता है ,परंतु उसके लायक स्वयं को बनाना पड़ता है |
सौभाग्य चुपके से दबे पाँव आता है और जीवन के दरवाजे पर दस्तक देकर चला जाता है | सौभाग्य के सुअवसर की पहचान बुद्धि एवं विवेक के द्वारा ही संभव है ,जो ऐसा कर पाता है ,उसके जीवन में सौभाग्य विविध रूपों में आता है | सौभाग्य सम्मान एवं आदर की अपेक्षा करता है | जो सुख -सौभाग्य को जितना आदर -मान देता है ,उसके जीवन में वह उतना ही गहराई से अपना प्रभाव दिखाता है | यदि जीवन में सौभाग्य का उदय पद एवं प्रतिष्ठा के रूप में हुआ है तो उसे बनाये रखने के लिये इस सौभाग्य के समय को पुण्य -परमार्थ ,सेवा -कार्यों में नियोजित करना चाहिये ,तो यह सौ गुना ,हजार गुना होकर वापस लौट आता है |
जो लोग वैभव ,संपदा प्राप्त होने पर अहंकारी हो जाते हैं ,इसका दुरूपयोग करते हैं ,उनके जीवन में यह समय से पूर्व ही विदा हो सकता है | सुख -सौभाग्य के समय का दुरूपयोग करने वाले समय से पूर्व ही संचित कोश को रिक्त कर देते हैं और फिर दुर्भाग्य का रोना रोते हैं |
सौभाग्य कई रूपों में आता है | श्री जुगल किशोर बिड़ला के जीवन में एक अवसर आया .जब उनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी | इतने अभाव में भी वे एक महात्मा को नित्य दो बार अपने हाथों से भोजन कराते थे | ऐसा एक भी दिन नहीं आया कि उन साधु को भोजन कराये बिना स्वयं अन्न ग्रहण किया हो
एक बार बिड़ला जी थके -हारे काम से आये थे ,आँधी -तूफान के साथ तेज वर्षा हो रही थी | भूख भी लग रही थी | खाना परोसा गया ,जैसे ही वे रोटी का टुकड़ा अपने मुँह में लेने लगे तो उन्हें उस साधु की याद आई ,जिसको खिलाये बिना वे अन्न के एक दाने को हाथ भी नहीं लगाते थे | आज यह कैसे अनर्थ हो गया ,वे खाना छोड़कर और साधु का भोजन लेकर बेसब्री से दौड़ पड़े | साधु सारी स्थिति से अवगत थे | साधु ने कहा -"तू आज अपना खाना छोड़कर मुझे खिलाने आया है इसलिये आज मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तेरे पास संपदा एवं संपति की कोई कमी नहीं होगी | "बिड़ला जी ने इस दिव्य अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया और महात्मा की कृपा से अथाह चल -अचल संपदा के स्वामी बने | सौभाग्य कृपा के रूप में भी बरस पड़ता है ,परंतु उसके लायक स्वयं को बनाना पड़ता है |
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