'न अकेला ज्ञान पर्याप्त है , न केवल तप । दोनों के समन्वय से ही आत्मिक प्रगति का आधार बनता है । '
सिख धर्म के दसों गुरुओं के जीवनवृतांत एक से एक बढ़कर हैं , पर गुरु गोविन्दसिंह जी के जीवन में जो विविधता -शौर्य -भक्ति , राष्ट्र देवता की आराधना , समाज -सुधार के प्रयास दिखाई देते हैं वे अपने आप में अद्भुत हैं । वे सदा कहते थे कि जो दीपक उनने जलाया है , उसकी ज्योति गुरुनानक देव जी द्वारा प्रदत्त है । वे तो केवल अपने रक्त एवं साधना का तेल डालकर इसकी ज्योति बढ़ाने आये हैं ।
उनने उत्तर पूर्व हिमालय में कई प्रकार की विद्दाओं में प्रवीणता अर्जित की , शिकार और अस्त्र -शास्त्रों के प्रयोग का अभ्यास किया । वीर काव्य का लोकभाषा में अनुवाद कराया और यौवन के जोश को संयम द्वारा राष्ट्र भक्ति के उत्साह में बदला । सभी को अकालपुरुष का पूजक बनाया और कौमी भावना से जोड़ा ।
हेमकुंड साहिब एवं पांवटा साहिब में उनने गहन तपस्या की । बाद में उस क्षेत्र के संकीर्ण मन वाले सभी राजाओं से युद्ध कर उन्हें मुगलों अपने साथ कर लिया । वे व्यायाम , निशाने -जाँबाजी के अखाड़े लगवाते और प्रतियोगिता कराते । वे स्वयं एक उच्च कोटि के साहित्यकार थे । उनकी रचनाएँ ( दसम ग्रंथ ) वीर रस से भरी हैं । राष्ट्रीय एकता , भाईचारा और देश की माटी से प्रेम , उनका जीवन इन्ही सबका संदेश देता है । विक्रमी संवत 1765 में उनने शरीर छोड़ दिया । अपने बाद उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब को ही गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया ।
सिख धर्म के दसों गुरुओं के जीवनवृतांत एक से एक बढ़कर हैं , पर गुरु गोविन्दसिंह जी के जीवन में जो विविधता -शौर्य -भक्ति , राष्ट्र देवता की आराधना , समाज -सुधार के प्रयास दिखाई देते हैं वे अपने आप में अद्भुत हैं । वे सदा कहते थे कि जो दीपक उनने जलाया है , उसकी ज्योति गुरुनानक देव जी द्वारा प्रदत्त है । वे तो केवल अपने रक्त एवं साधना का तेल डालकर इसकी ज्योति बढ़ाने आये हैं ।
उनने उत्तर पूर्व हिमालय में कई प्रकार की विद्दाओं में प्रवीणता अर्जित की , शिकार और अस्त्र -शास्त्रों के प्रयोग का अभ्यास किया । वीर काव्य का लोकभाषा में अनुवाद कराया और यौवन के जोश को संयम द्वारा राष्ट्र भक्ति के उत्साह में बदला । सभी को अकालपुरुष का पूजक बनाया और कौमी भावना से जोड़ा ।
हेमकुंड साहिब एवं पांवटा साहिब में उनने गहन तपस्या की । बाद में उस क्षेत्र के संकीर्ण मन वाले सभी राजाओं से युद्ध कर उन्हें मुगलों अपने साथ कर लिया । वे व्यायाम , निशाने -जाँबाजी के अखाड़े लगवाते और प्रतियोगिता कराते । वे स्वयं एक उच्च कोटि के साहित्यकार थे । उनकी रचनाएँ ( दसम ग्रंथ ) वीर रस से भरी हैं । राष्ट्रीय एकता , भाईचारा और देश की माटी से प्रेम , उनका जीवन इन्ही सबका संदेश देता है । विक्रमी संवत 1765 में उनने शरीर छोड़ दिया । अपने बाद उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब को ही गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया ।
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