मिथिलानगरी के महानंद का जीवन कठोर तप में बीता | उन्होंने कई सिद्धियाँ अर्जित कर ली | असाधारण क्षमताओं के धनी मुनि महानंद की ख्याति चंद्रमा के प्रकाश की तरह फैलने लगी | अगणित व्यक्ति उनके आश्रम में पहुँचते और उन्हें उनकी सिद्धियों का लाभ भी मिलता , वे आश्रम की सम्रद्धि में वृद्धि भी करते लेकिन मुनि महानंद की अंदर की शांति विलुप्त हो गई | तृष्णा में उलझे मुनि अंदर से परेशान , दुखी रहने लगे | एक रात इसी दुःख में वे अकेले जंगल होते हुए नदी किनारे एक गाँव में पहुंचे | वहां उन्हें किसी के कराहने का स्वर सुनाई दिया | एक व्यक्ति बीमार था | कोई उसकी देख-रेख करने वाला नहीं था | उन्होंने उसकी रात भर सेवा की | कपड़े
बदले , जब पीड़ा से मुक्त होने पर उसे नींद आ गई , तब वे आश्रम लौट आये उस दिन न वे संध्या कर पाए , न प्राणायाम , न ही जप-तप | लेकिन उन्हें अंत:करण में अभूतपूर्व शांति अनुभव हो रही थी | आज उन्होंने सेवा को , कर्मयोग की साधना को सच्ची सिद्धिदात्री आराधना के रूप में जाना |
मनुष्य को अपनी बुद्धि की शक्ति का उपयोग आजीविका के साथ-साथ सेवा के लिये , परोपकार के लिये करना चाहिये | इस नियम का पालन सारी दुनिया करने लगे तो सहज ही सब लोग बराबर हो जाएँ , कोई भूखा न रहे और जगत बहुत से पापों से बच जाये | इस नियम का पालन करने वाले पर इसका चमत्कारी असर होता है , क्योंकि उसे परम शांति मिलती है , उसकी सेवाशक्ति बढ़ती है और उसका स्वास्थ्य अच्छा रहता है |
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