आँखें बंद हों तो पाँव अपने आप ही राह भटक जाते हैं | जिसने आँखें खोल लीं, उसके जीवन में फिर अँधेरा नहीं रहता ।
आंतरिक शक्तियों के विकास के लिये बीती बातों को बिसारना ही पड़ेगा । एक नई जिंदगी की तलाश में, अतीत की कड़वी यादों को भुलाकर आगे के सतर्क व सजग पथ पर बढ़ना होगा । इसके लिये हमें स्वयं की त्रुटियों का अच्छी तरह से मूल्यांकन करना होगा ।
जिंदगी सँवारने-तराशने की, परिष्कार की प्रक्रिया कठिन अवश्य है लेकिन असंभव नहीं । असंभव को संभव करने वाले ये सूत्र हैं ------1.अपने को गढ़ने का, होश पूर्वक जिंदगी जीने का संकल्प लिया जाये । 2. अपनी गलतियों-कमियों को खुले मन से उसी रूप में पूर्ण ईमानदारी के साथ स्वीकार किया जाये । अपनी स्वयं की कमियों को छिपाने से ही अवचेतन मन में ग्रंथियाँ बनकर टीसती रहती हैं । गलतियों को मान लेने से अपने अंदर रोशनी फूट पड़ती है ।
एक बहेलिया किन्ही पहुंचे हुए संत से दीक्षा लेना चाहता था । संत का नियम था की गुरुदक्षिणा में अहिंसा व्रत निभाने की प्रतिज्ञा कराते थे ।
बहेलिये का निर्वाह पक्षी पकड़ने पर ही चलता था, वह उसके लिये तैयार नहीं हुआ । निराश लौटते देख संत ने उसे सरल मार्ग सुझाया और क्रमश: धीरे-धीरे कदम बढ़ाने का मार्ग बताया ।
उन्होंने कहा---" अभी तुम कम से कम एक पक्षी पर दया करने का व्रत निभाओ, फिर उस व्रत की परिधि बढ़ाते चलना । " इस पर बहेलिया तैयार हो गया, उसने सर्वप्रथम कौआ न मारने का व्रत लिया और अहिंसा धर्म में प्रवेश किया ।
बहेलिया अहिंसा तत्व पर विचार करता रहा,धीरे-धीरे उसकी परिधि बढ़ाता रहा । कुछ दिन में वह पूर्णतया अहिंसाधारी संत बन गया ।
आंतरिक शक्तियों के विकास के लिये बीती बातों को बिसारना ही पड़ेगा । एक नई जिंदगी की तलाश में, अतीत की कड़वी यादों को भुलाकर आगे के सतर्क व सजग पथ पर बढ़ना होगा । इसके लिये हमें स्वयं की त्रुटियों का अच्छी तरह से मूल्यांकन करना होगा ।
जिंदगी सँवारने-तराशने की, परिष्कार की प्रक्रिया कठिन अवश्य है लेकिन असंभव नहीं । असंभव को संभव करने वाले ये सूत्र हैं ------1.अपने को गढ़ने का, होश पूर्वक जिंदगी जीने का संकल्प लिया जाये । 2. अपनी गलतियों-कमियों को खुले मन से उसी रूप में पूर्ण ईमानदारी के साथ स्वीकार किया जाये । अपनी स्वयं की कमियों को छिपाने से ही अवचेतन मन में ग्रंथियाँ बनकर टीसती रहती हैं । गलतियों को मान लेने से अपने अंदर रोशनी फूट पड़ती है ।
एक बहेलिया किन्ही पहुंचे हुए संत से दीक्षा लेना चाहता था । संत का नियम था की गुरुदक्षिणा में अहिंसा व्रत निभाने की प्रतिज्ञा कराते थे ।
बहेलिये का निर्वाह पक्षी पकड़ने पर ही चलता था, वह उसके लिये तैयार नहीं हुआ । निराश लौटते देख संत ने उसे सरल मार्ग सुझाया और क्रमश: धीरे-धीरे कदम बढ़ाने का मार्ग बताया ।
उन्होंने कहा---" अभी तुम कम से कम एक पक्षी पर दया करने का व्रत निभाओ, फिर उस व्रत की परिधि बढ़ाते चलना । " इस पर बहेलिया तैयार हो गया, उसने सर्वप्रथम कौआ न मारने का व्रत लिया और अहिंसा धर्म में प्रवेश किया ।
बहेलिया अहिंसा तत्व पर विचार करता रहा,धीरे-धीरे उसकी परिधि बढ़ाता रहा । कुछ दिन में वह पूर्णतया अहिंसाधारी संत बन गया ।
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