ऋषि तुक्षीण अपने शिष्यों को जप-ध्यान की विधियाँ समझा रहे थे | उनके एक शिष्य ने कहा---" गुरुदेव ! पूजा-उपासना, तप-तितिक्षा का इतना महत्व क्यों है । इनको करने से क्यों मनुष्य को पुण्य बल की प्राप्ति होती है ? " ऋषि ने उत्तर दिया--" वत्स ! इस स्रष्टि का नियंता इस सत्य को जानता है कि प्रकृति के गुणों से अभिभूत होकर मनुष्य सहज रूप से पतित होता रहता है । पतन मनुष्य के सहज क्रम में सम्मिलित है, जबकि उठना पराक्रम है । जो धारा के विपरीत जाने का साहस रखते हैं, वही सम्मान के अधिकारी भी बनते हैं । "
तप-तितिक्षा व्यक्तित्व को परिष्कृत करते हैं और परिष्कृत व्यक्तित्व ही श्रेय-सम्मान को धारण करने में सक्षम होता है ।
गायत्री-साधना में असत को सत में, अन्धकार को प्रकाश में तथा अज्ञान को ज्ञान में बदलने की विलक्षण शक्ति है । व्यक्तित्व का परिष्कार गायत्री मंत्र के मर्म को अपनी जीवन शैली में समाहित करने से ही संभव है ।
तप-तितिक्षा व्यक्तित्व को परिष्कृत करते हैं और परिष्कृत व्यक्तित्व ही श्रेय-सम्मान को धारण करने में सक्षम होता है ।
गायत्री-साधना में असत को सत में, अन्धकार को प्रकाश में तथा अज्ञान को ज्ञान में बदलने की विलक्षण शक्ति है । व्यक्तित्व का परिष्कार गायत्री मंत्र के मर्म को अपनी जीवन शैली में समाहित करने से ही संभव है ।
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