' विचार पर ही मत रुके रहो | चलो और कुछ करो । लाखों-लाख मील चलने के विचार से एक कदम आगे बढ़ चलना ज्यादा मूल्यवान है । '
मनुष्य की शक्तियाँ अनंत है, परंतु यह अचरज भरे दुःख की बात है कि उसकी ज्यादातर शक्तियाँ सोई हुई हैं । यहाँ तक कि हमारे जीवन के सोने की अंतिम रात्रि आ जाती है, परंतु इन शक्तियों का जागरण नहीं हो पाता ।
यह जरुरी है कि हमारा जीवन सक्रिय और सृजनात्मक हो । सकारात्मक सक्रियता के साधक हमेशा ही अपने विचारों को क्रियारूप में परिणत करते रहते हैं ।
नोबल पुरस्कार विजेता और प्रख्यात लेखक विलियम फाकनर, किसी जमाने में डाकखाने में एक साधारण क्लर्क थे । उन दिनों बहुमूल्य जीवन का, बहुमूल्य उपयोग करने के लिये उनकी आत्मा बहुत तड़पती थी, पर वेतन देने वाले अधिकारी जरा भी अवकाश डाकसेवा के अतिरिक्त और कुछ करने के लिये देने को तैयार न थे ।
एक दिन वे बहुत परेशान हो उठे और भविष्य की आजीविका का बिना कुछ विचार किये इस्तीफा लिखने बैठ गये । आवेश में लिखा, वह इस्तीफा पोस्ट मास्टर जनरल के पास पहुँचा और वहाँ उसे स्वीकार भी कर लिया गया । इसके बाद वे साहित्य सृजन की साधना में एकाग्रचित होकर लग गये । वह आवेश भरा इस्तीफा राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित रखा है और पर्यटकों के लिये वह एक कुतूहल की ही पूर्ति नहीं करता, एक प्रेरणा और दिशा भी देता है । इस्तीफा में लिखा है---- " पेट पालने के लिये दूसरों पर आश्रित रहना, उनके इशारों पर चलना तो पड़ता ही है, पर मेरे लिये यह असह्य है कि पैसों के लिये ही बिका रहूँ और जिंदगी के कीमती क्षणों को ऐसे ही गँवाता-बरबाद करता रहूँ । अब इस सर्वस्वीकृत ढर्रे पर चलते रह सकना मेरे लिये संभव न हो सकेगा । मैं कुछ ऐसा करूँगा जो मुझे करना चाहिये । सो यह लीजिये मेरा इस्तीफा । "
मनुष्य की शक्तियाँ अनंत है, परंतु यह अचरज भरे दुःख की बात है कि उसकी ज्यादातर शक्तियाँ सोई हुई हैं । यहाँ तक कि हमारे जीवन के सोने की अंतिम रात्रि आ जाती है, परंतु इन शक्तियों का जागरण नहीं हो पाता ।
यह जरुरी है कि हमारा जीवन सक्रिय और सृजनात्मक हो । सकारात्मक सक्रियता के साधक हमेशा ही अपने विचारों को क्रियारूप में परिणत करते रहते हैं ।
नोबल पुरस्कार विजेता और प्रख्यात लेखक विलियम फाकनर, किसी जमाने में डाकखाने में एक साधारण क्लर्क थे । उन दिनों बहुमूल्य जीवन का, बहुमूल्य उपयोग करने के लिये उनकी आत्मा बहुत तड़पती थी, पर वेतन देने वाले अधिकारी जरा भी अवकाश डाकसेवा के अतिरिक्त और कुछ करने के लिये देने को तैयार न थे ।
एक दिन वे बहुत परेशान हो उठे और भविष्य की आजीविका का बिना कुछ विचार किये इस्तीफा लिखने बैठ गये । आवेश में लिखा, वह इस्तीफा पोस्ट मास्टर जनरल के पास पहुँचा और वहाँ उसे स्वीकार भी कर लिया गया । इसके बाद वे साहित्य सृजन की साधना में एकाग्रचित होकर लग गये । वह आवेश भरा इस्तीफा राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित रखा है और पर्यटकों के लिये वह एक कुतूहल की ही पूर्ति नहीं करता, एक प्रेरणा और दिशा भी देता है । इस्तीफा में लिखा है---- " पेट पालने के लिये दूसरों पर आश्रित रहना, उनके इशारों पर चलना तो पड़ता ही है, पर मेरे लिये यह असह्य है कि पैसों के लिये ही बिका रहूँ और जिंदगी के कीमती क्षणों को ऐसे ही गँवाता-बरबाद करता रहूँ । अब इस सर्वस्वीकृत ढर्रे पर चलते रह सकना मेरे लिये संभव न हो सकेगा । मैं कुछ ऐसा करूँगा जो मुझे करना चाहिये । सो यह लीजिये मेरा इस्तीफा । "
No comments:
Post a Comment